Sunday, August 13, 2017

मराठा पेशवा

महाराष्ट्र में पं. बालाजी विश्वनाथ को साहू ने अपना पहला पेशवा 16 नवंबर 1713 में नियुक्त किया । 2 अप्रैल 1720 में इसका देहांत हो गया । 1720 में जिसका पुत्र बाजीराव पेशवा बना । बाजीराव वीर,साहसी तथा विस्तारवादी प्रकृति का था । वह एक योग्य पेशवा ही नहीं अपितु विवेकी राजनीतिज्ञ भी था । इसके 3 पुत्र थे बालाजी बाजीराव,रघुनाथराव और चिमाजी अप्पा इसने हिंदुओं में सहानुभूति जगाने के लिए हिंदू पद पादशाही के आदर्शों पर कार्य किए । बाजीराव शिवाजी की तरह ही पराक्रमी था । इसलिए इसे लोग शिवाजी का अवतार मानते थे । यह विश्व का एकमात्र ऐसा योद्धा था जो अपने शत्रुओं से कभी नहीं हारा । मस्तानी इसकी प्रेयसी थी जो एक सुंदर नृत्यांगना थी । गुजरात के गीतों में इसे 'यवन कांचनी' कहते हैं । मस्तानी के एक पुत्र हुआ जिसका नाम शमशेर बहादुर था । जो 1761 में पानीपत की युद्ध में मारा गया । 28 अप्रैल 1740 में बाजीराव की मृत्यु हो गई । 1740 में बाजीराव का पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा बना । इसका असली नाम नाना-साहेब पेशवा था । इसके शासनकाल में 1740 से 1758 तक अफगान के लुटेरे अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर कई बार चढ़ाई करके भारत को लूटा । बालाजी बाजीराव ने उत्तर भारत में अहमदशाह अब्दाली को रोकने के लिए जो सेना भेजी थी वह पेशवाओं में भेजी जाने वाली सबसे विशाल सेना थी । 1760 में 'उदयगिरि के युद्ध' में इसने निजाम के दांत खट्टे कर दिए । किंतु 1761 में पानीपत के तृतीय युद्ध में इसे अहमद शाह अब्दाली ने बुरी तरह पराजित किया । 23 जून सन 1761 में बालाजी बाजीराव की मृत्यु हो गई । इसके बाद 1761 में बालाजी बाजीराव का पुत्र माधवराव पेशवा बना । इसे मराठा पेशवाओं में सबसे सबसे ज्यादा योग्य व होशियार पेशवा माना गया । क्योंकि इसने पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की खोई हुई शक्ति को एक बार फिर सुद्रण किया । शुरू में उसके चाचा रघुनाथराव ने इसकी तरफ से शासन किया । परंतु शीघ्र ही इसने शासन सूत्र अपने हाथ में ले लिया । इसे सबसे बड़ी सफलता उत्तर भारत में मालवा तथा बुंदेलखंड को जीतकर मिली । इसने दिल्ली के बादशाह शाहआलम द्वितीय को जो इलाहाबाद में ईस्ट इंडिया कंपनी की पेंशन पर जीवन व्यतीत कर रहा था उसे एक बार फिर दिल्ली के तख्त पर बैठा दिया । इसके शासनकाल में महादजी सिंधिया उत्तर भारत में तथा नाना फडणवीस दक्षिण भारत में प्रभावशाली हो गए थे । जो इसके द्वारा नियुक्त किए गए थे । इसके शासनकाल में पेशवा शब्द नाम मात्र का ही रह गया था । क्योंकि इनके सरदार तथा मंत्री आपस में अपनी शक्ति के लिए संघर्ष करने लगे । जिसका लाभ अंग्रेजों ने उठाया । 1772 में अचानक माधवराव की मृत्यु हो गई । इस बारे में ग्रांड डफ ने लिखा है कि -"मराठा साम्राज्य के लिए पानीपत का मैदान उतना घातक सिद्ध नहीं हुआ जितना कि इस श्रेष्ठ शासक का असामायिक देहावसान"। इसके बाद 1772 में माधवराव का पुत्र नारायण राव पेशवा बना । यह केवल 1 वर्ष तक ही इस पद पर यह पाया था कि 1773 में इसके चाचा रघुनाथराव ने इसकी हत्या करके कुर्सी पर अपना अधिकार कर लिया । किन्तु रघुनाथराव भी अल्पकाल तक ही अपनी पद पर रह पाया था कि नाना फड़नवीस और मराठा सरदारों ( गायकवाड-बडोदा,भोंसले-नागपुर, सिंधिया-ग्वालियर,होलकर-इंदौर )इसका घोर विरोध किया । तो यह गद्दी छोड़ कर डर कर भाग गया और इसने अंग्रेजों से मिलकर सूरत की संधि कर ली । संधि की शर्तों के अनुसार उसने अंग्रेजों को यह वचन दिया कि वह उनकी शत्रुओं से किसी भी प्रकार का मेल-मिलाप नहीं रखेगा । और अंग्रेजों ने उसे पेशवा बनवाने में सैनिक सहायता करने का वादा किया । किंतु उधर नारायणराव की विधवा रानी गंगाबाई के गर्भ से 18 अप्रैल 1774 को पुत्र उत्पन्न हुआ । जिसका नाम माधवराव नारायण रखा गया । इसे माधवराव द्वितीय के नाम से सिंहासन पर बैठाया । 1 माह 18 दिन की शिशु अवस्था में ही इसे पेशवा घोषित किया गया । इस शासन को चलाने के लिए 12 सदस्यों की समिति बनाई गई । इस समिति का मुखिया रघुनाथराव के कट्टर विरोधी नाना फड़नवीस को चुना गया । 1775 में अंग्रेजों ने रघुनाथराव को पेशवा की गद्दी पर बैठाने के उद्देश्य प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध छेड़ दिया । इसमें मराठाओं ने अंग्रेजों को कई स्थानों पर नाकों चने चबा दिए । और चारों तरफ से अंग्रेजों को घेर लिया । 1776 में कैप्टन ऑप्टन ने नाना फड़नवीस से मजबूर होकर पुरंदर की संधि की । परंतु यह संधि वारेन हेस्टिंग्स के लिए आपत्ति काल की शांति वार्ता थी । 1779 में रघुनाथराव और अंग्रेजों की सेना ने पूना में मराठा की सेना को पराजित कर दिया । जिससे विवश होकर मराठाओं को बड़ागांव समझौता करना पड़ा । जिसमें मराठा की सेना मैसूर युद्ध में अंग्रेजो का साथ देने के लिए तैयार हो गई । 1782 में मराठाओं की ओर से महादजी सिंधिया ने अंग्रेजों को सालबाई की संधि करने को मजबूर किया । जिसकी शर्तों के अनुसार अंग्रेजों ने रघुनाथराव को मराठों को सौंप दिया । मराठाओं ने इसे ₹25 हजार वार्षक पेंशन पर देने का वादा किया । सालबाई की संधि के बाद युद्ध में विराम लग गया । और अगले 20 वर्षों तक दोनों में इसलिए शांति बनी रही क्योंकि अंग्रेजों को डर था कि नाना फड़नवीस के रहते मराठों पर विजय पाना संभव नहीं है । यह भारत की ही नहीं अपितु एशिया के महान कूटनीतिज्ञ थे । इनके जीते जी महाराष्ट्र की स्वतंत्रता पर आंच नहीं आई । नाना फडनवीस ने बालक के पेशवा होने का भरपूर फायदा उठाया । और उन्होने सत्ता पर अपना अधिकार करना चाहा । जिसका महादजी सिंधिया ने विरोध किया । तो दोनों में प्रतिद्वंदता शुरू हो गई । जिसमें मराठा शक्ति कमजोर रही । किंतु 1794 में महादजी सिंधिया की मृत्यु के बाद प्रतिद्वंद्विता समाप्त हो गई । उधर नवयुवक माधवराव नारायण नाना फड़नवीस की कड़ी निगरानी में रहने के कारण उब गया । और उसने 1795 में आत्महत्या कर ली । जिससे मराठाओं की अर्थव्यवस्था एक बार फिर तितर-बितर हो उठी । अब पेशवा बनाने का अधिकार रघुनाथराव के पुत्र बाजीराव द्वितीय का था । किन्तु नाना फड़नवीस उसके विपक्ष में था । अतः नाना फड़नवीस ने बाजीराव के अनुज चिमनाजी अप्पा को उसकी अस्वीकृति के बाद भी पेशवा बनाने का निश्चय किया । चिमनाजी अप्पा सवाई माधवराव के नाम से पेशवा बना । इसकी नियुक्ति को वैध ठहराने के लिए इसे माधवराव की विधवा जसोधाबाई ने गोद लिया । 1796 में यह पेसवा बना । किंतु इसने नाना फड़नवीस की इच्छा के अनुसार शासन नहीं चलाया । तो नाना फड़नवीस ने इसके विरुद्ध एक षड्यंत्र रचकर इसे अपदस्थ करके जेल में डलवा दिया । और बाजीराव द्वितीय को पेशवा बना दिया गया । यह 1796 में पेशवा घोषित किया गया । अंग्रेजों ने इसके पेशवा बनने का फायदा उठाकर तुरंत ही इससे 1796 में 'आष्ठी की लड़ाई' छेड़ दी । जिसका अंत 1818 में तब हुआ जब अंग्रेजों ने पेशवा पद को समाप्त कर मराठा साम्राज्य को अपने कब्जे में कर लिया । बाजीराव द्वितीय आठवां तथा अंतिम पेशवा था । यह एक स्वार्थी,कायर तथा अयोग्य पेशवा था । यह अपने प्रधानमंत्री नाना फडणवीस से ईर्ष्या करता था । सन् 1800 मे नाना फड़नवीस की मृत्यु हो गई । इसके साथ ही मराठाओं की स्वतंत्रता भी नष्ट हो गई । अब प्रधानमंत्री पद के लिए दौलत राम सिंधिया और यशवंतराव होलकर दोनों में संघर्ष शुरू हुआ । जिसमें बाजीराव द्वितीय दौलतराम सिंधिया का साथ दिया । लेकिन जसवंतराव होल्कर ने इन दोनों की सेनाओं को पराजित कर दिया । जिससे भयभीत होकर बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजो की शरण लेकर वसई की संधि कर ली । 1802 में उसने सहायक संधि पर हस्ताक्षर करके अंग्रेजों पर आश्रित हो गया । अंग्रेजों ने उसे सैनिक सहायता दे दी । किंतु इसका मराठा सरदार भोंसले तथा सिंधिया ने विरोध किया । और उन्होंने मराठाओं की स्वतंत्रता को बनाए रखने के उद्देश्य से अंग्रेजों से 1803 में द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध छेड़ दिया । परंतु इसी बीच होल्कर ने अमृतराव को पेशवा बना दिया । शुरू में होल्कर इस युद्ध से अलग रहा । तो इसकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुंची । इसलिए उसने शीघ्र ही स्वतंत्र रूप से भरतपुर के राजा के साथ मिलकर अंग्रेजों से युद्ध शुरू कर दिया । उसने शीघ्र ही जबलपुर पर हमला किया । जबकि जबलपुर का राजा सहायक संधि को स्वीकार कर चुका था । इसलिए वेलेजली ने अपनी सेना भेजकर होल्कर से युद्ध शुरू कर दिया । होल्कर ने पंजाब जाकर रणजीत सिंह से मदद मांगी । किन्तु रणजीत सिंह ने उसे सहायता देने से इंकार कर दिया । अंग्रेजों के सामने यह सरदार अधिक समय तक न कर सके । अतः सभी को विवश होकर अलग-अलग संधि करनी पड़ी । सिंधिया ने अंग्रेजो से सुर्जी अर्जुनगांव की संधि की । तो रघुजी भोंसले देवगांव की संधि के लिए मजबूर हो गए । वहीं होलकर को राजपुर घाट की संधि करनी पड़ी । किन्तु अंग्रेज भरतपुर के राजा को जीत न सके । इसी समय 1805 में नया गवर्नर जनरल जॉर्ज बार्लो आया । उसने फरवरी 1806 में भरतपुर के राजा से संधि कर ली । और द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त किया । मराठा सरदारों को विवश होकर सहायक संधि स्वीकार करनी पड़ी । अंग्रेजों ने दिल्ली, आगरा ,ग्वालियर ,अहमदाबाद ,भचोढ आदि सभी प्रांत अपने कब्जे में ले लिये । और भारत की सर्वोच्च शक्ति बन गए । पहले पेशवा बाजीराव द्वितीय ने सहायक संधि पर हस्ताक्षर करके अपनी सत्ता अंग्रेजों को सौंप दी थी । किंतु उसे इस बात का खेद 1817 में तब हुआ जब ब्रिटिश सरकार ने उस पर नई सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया । इस तरह के अंग्रेजों के नियमित हस्तक्षेप से परेशान होकर बाजीराव द्वितीय ने पूना की अंग्रेजी रेजीडेंसी को लूटकर जला कर राख कर दिया । और अंग्रेजी सैना पर हमला करके त्रतीय आंग्ला मराठा युद्ध छेड दिया । इसी के साथ भोंसले ,सिंधिया और होलकर ने भी युद्ध छोड़ दिया । इन भिन्न-भिन्न लड़ाइयों में अंग्रेजों ने मराठाओं को पराजित किया । और 1818 में आष्ठा की लड़ाई मैं पेशवा को पराजित कर पेशवा के पद को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया । और बाजीराव द्वितीय को बिठूर में 8 लाख रुपए वार्षिक पेंशन पर भेज दिया । और युद्ध समाप्त करके मराठा राज्य को  छीन

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