Wednesday, August 30, 2017

दिल्ली राजधानी परिवर्तन

1911 में ब्रिटेन का सम्राट जॉर्ज पंचम

दिल्ली आया था । दिल्ली मे उसने स्वागत के लिए भव्य दरबार का आयोजन किया गया था । जॉर्ज पंचम ने बंगाल का विभाजन रद्द करके राजधानी को कोलकाता से दिल्ली करने की घोषणा की थी । जिसका बंगाल के महान क्रांतिकारी रास बिहारी बोस

ने विरोध किया था । और 1912 में वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम्म फैंककर उस पर हमला करके जापान भाग गया था । गुजरात में बारदोली के किसानों ने अंग्रेजों द्वारा अधिक लगान वसूला जा रहा था । जिसे 1911 में सत्याग्रह करके सरदार वल्लभभाई पटेल ने बहुत कम करवा दिया था । तो वहां की महिलाओं ने प्रसन्न होकर बल्लभ भाई पटेल को सरदार की उपाधि प्रदान की थी ।

Tuesday, August 29, 2017

असहयोग आंदोलन

ब्रिटिश सरकार की दमन नीति अत्याचार और जलियांवाला बाग हत्याकांड से दुखी होकर कांग्रेस के नागपुर अधिवेसन मे असहयोग आन्दोलन को शुरू करने की पुष्टि कर दी गई । गांधीजी ने 1 अगस्त 1920 को  असहयोग आंदोलन शुरू करने का निर्णय लिया । जिसका मुख्य उद्देश्य सरकार का सहयोग न करके उनके काम मे बाधा डालकर स्वेम स्वराज्य  प्राप्त करना था । गांधी जी ने संपूर्ण भारत में इसकी सूचना पहुंचा दी । इस आंदोलन में संपूर्ण भारत में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके स्वदेशी वस्तुओं अपनाने की घोषणा की गई । कई लोगों ने सरकारी उपाधि और अवेतनिक पदों को त्याग दिया । और सरकारी तथा अर्धसरकारी उत्सवों का बहिष्कार किया । कई स्थानों पर लोगों ने सरकारी व सरकार से सहायता प्राप्त विद्यालयों से अपने बच्चे हटा लिए । और राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान बनाने की मांग की । इस आंदोलन में लोगों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित किसी भी प्रकार के चुनाव में हिस्सा न लेने का वादा किया । और अंग्रेजी न्यायालयों का बहिष्कार करके अपने विवादों का निर्णय सीधे पंचायतों द्वारा करने की घोषणा स्वीकार की । जब असहयोग आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था । तब 4 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले मे चोरी चौरा नामक स्थान पर एक अप्रिय घटना घट गई । जिसके कारण गांधी जी को असहयोग आंदोलन स्थगित करना पडा । गोरखपुर जिले के चोरी-चौरा में अनियंत्रित भीड़ ने एक पुलिस थाने को जला दिया । जिसमें 21 सिपाही और एक थानेदार जलकर मर गए । इस हिंसात्मक घटना के कारण ही गांधी जी को असहयोग आंदोलन स्थगित करना पडा ।

Monday, August 28, 2017

महात्मा गांधी के आंदोलन

भारत के राजनीतिक क्षेत्र में महात्मा गांधी का प्रवेश नवीन युग के प्रारंभ का सूचक था । महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय आंदोलन को नया स्वरुप प्रदान किया । महात्मा गांधी के नेतृत्व में अनेक आंदोलन हुए । गांधीजी का भारत में पहला सत्याग्रह 1917 में बिहार के चंपारण से शुरू हुआ था । वहां के किसानों पर गोरे भारी अत्याचार कर रहे थे । गोरों ने तिनकठिया नामक एक नियम बनाया था । जिसके द्वारा किसानों को अपनी जमीन के एक हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य होती थी । जो बाद में अंग्रेजों द्वारा लूट ली जाती थी । गांधीजी भी स्थिति का जायजा लेने के लिए वहां पहुंचे । तो उनके दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ वहां पर उमड़ पड़ी। किसानों ने अपनी सारी समस्याएं गांधीजी को बता दी। तो इससे पुलिस हरकत में आ गई । पुलिस सुपरडेंट ने गांधी जी को जिला छोड़ने का आदेश दिया । तो गांधीजी ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया । अगले दिन गांधीजी को कोर्ट में हाजिर होना था । तो हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा हो गई । गांधीजी के समर्थन में नारे लगाए जा रहे थे । हालात की गंभीरता को देखते हुए मजिस्ट्रेट ने पहले तो गांधीजी पर सौ रुपए का जुर्माना लगाया किंतु गांधीजी ने जुर्माना देने से इनकार कर दिया । तो फिर बाद में बिना जमानत के गांधी जी को छोड़ने का आदेश दिया । लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार सजा की मांग की । अब ब्रिटिश सरकार ने मजबूत होकर एक जांच आयोग नियुक्त किया । गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाया गया । परिणाम सामने था इसलिए कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया । वहां के किसान अपनी जमीन के मालिक बन गए । और गांधीजी ने भारत में अपनी पहली सत्याग्रह विजय का शंख फूंक दिया । गांधी जी चंपारण में ही थे । तभी अहमदाबाद के मिल मजदूरों ने उन्हें बुलाने का निमंत्रण भेजा । मिलों के मालिक मजदूरों को कठोर यातनाएं दे रहे थे । उनसे वेतन की अपेक्षा काम अधिक कराया जा रहा था । गांधीजी ने दोनों पक्षों से बातचीत करने के बाद उनका निर्णय मजदूरों के पक्ष में गया । लेकिन मिल मालिक मजदूरों को कोई भी आश्वासन देने को तैयार नहीं हुए । तो गांधीजी मजदूरों के साथ भूख हड़ताल पर बैठ गए । अब मालिक और मजदूरों के बीच एक बैठक हुई । जिससे समस्या का हल निकल गया । तो हड़ताल समाप्त कर दी गई । गुजरात के खेड़ा जिले में फसल बर्बाद हो चुकी थी । अंग्रेज गरीब किसानों से लगान चुकाने के लिए दबाव डाल रहे । थे गांधीजी ने एक गांव से दूसरे गांव के लिए किसानों के साथ पैदल यात्रा शुरू कर दी । और उन्होंने किसानों से कहा कि वे जब तक सत्याग्रह के मार्ग पर लगातार चलते रहे तब तक सरकार उनका लगान माफ करने की घोषणा न कर दे । चार महीने तक यह संघर्ष चला । इसके बाद सरकार ने गरीब किसानों के लगान माफ करने की घोषणा कर दी ।

Sunday, August 27, 2017

जालियांवाला बाग हत्याकांड

अमृतसर में जलियांवाला बाग एक छोटा सा पार्क है जो आज के वर्तमान समय में भी वहीं पर स्थत है । जैसा आज है वैसा ही 1919 के समय था । इस पार्क में एक ही दरवाजा था । और तीन और से मकानों से गिरा हुआ था । रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में प्रदर्शन करने वाले पंजाब के लोकप्रिय नेता सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को अंग्रेजों ने बिना किसी अपराध के गिरफ्तार करके काले पानी की सजा सुना दी थी । जिसके विरोध में लोगों ने एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला । जिसे अंग्रेजों ने काफी रोकने का प्रयास किया किंतु वह सफल नहीं हुए । तो जुलूस करने वाले लोगों ने गुस्से में आकर सरकारी इमारतों में आग लगा दी । अमृतसर की ऐसी स्थिति से घबराकर सरकार ने 10 अप्रैल 1919 को शहर का प्रशासन सैन्य अधिकारी जनरल डायर को सौंप दिया । जिसने सभा आयोजन एवं प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया । मगर यह सूचना जनता को पता नही चल पाई । 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने एक विरोध सभा का आयोजन किया । जिसमें लगभग 10 हजार लोग एकत्रित होकर अपने काम मे लगे हुए थे । तभी अचानक जनरल डायर अपने 90 सशक्त सैनिकों के साथ वहां आकर मुख्य द्वार को घेर लेता है । और लोगों को सूचित किए बिना सैनिकों को गोलियां चलाने का आदेश दे देता है । सैनिक देखते ही देखते 1650 गोलियां लोगों के सीने में दाग देते है । सैकड़ों लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग में स्थित कुए में जिंदा कूद जाते है । भारी हडकंप मच जाता है । इसमें लगभग 1 हजार लोग मारे  जाते हैं । और 2 हजार से ज्यादा लोग बुरी तरह घायल हो जाते है । ब्रिटिश सरकार जनरल डायर को पद से हटा देती है । किंतु उसकी निंदा नहीं करती है । बल्कि उसे ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करने वाला शेर मानकर उसे एक रत्न जडित तलवार भेंट करती है । इस दावानल कार्य की पूरा संसार  निंदा  करता है । डायर की क्रूरता भरी करतूत से अनेक अंग्रेजों की आत्मा तक कांप जाती है । भारतीय क्रांतिकारी उधम सिंह ने 13 अप्रैल 1940 को लंदन में जनरल डायर को गोली से मारकर इस हत्याकांड का बदला लेता है । उधम सिंह को 4 जून सन 1940 को इंग्लैंड में फांसी दे दी जाती

Saturday, August 26, 2017

रोलेट एक्ट

रोलेक्ट एक्ट 8 मार्च 1919 को ब्रिटिश सरकार ने रोलेक्ट एक्ट पारित किया । जिसमें ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुए की पुलिस संदेह के घेरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति को बिना किसी प्रमाण के गिरफ्तार करके सजा सुनाई जा सकती है । इसे आतंकवादी अपराधी अधिनियम भी कहा गया । भारतीयों ने इस बिना अपील बिना वकील और बिना दलील के लागू होने वाले कानून की घोर निंदा की । और गांधीजी ने इसे शैतान सरकार का काला कानून कहा । इसके विरोध में पूरे देश में 1 दिन का उपवास रखा गया । और दुकानें बंद तथा हड़ताल रही । 6 अप्रैल का दिन राष्ट्रीय अपमान दिवस के रूप में मनाया गया गांधीजी ने असहयोग आंदोलन चलाने का निश्चय कर लिया ।

Friday, August 25, 2017

प्रथम विश्व युद्ध

1882 में यूरोप में एक गुट बना जिसे त्रिगुट या ट्रिपल एलयांस के नाम से जाना गया इस  गुट में जर्मनी,ऑस्ट्रिया,हंगरी तथा इटली शामिल थे । किंतु इस गुट में इटली की वफादारी संदेहपूर्ण थी । क्योंकि इटली का मुख्य उद्देश्य ऑस्ट्रिया तथा हंगरी के  कुछ इलाके छीनना था । इसके बाद 1907 में यूरोप में एक दूसरा गुट बना । जिसे ट्रपल ऐंटा या त्रिमैती  संधि कहते हैं । इस गुट मे फ्रांस इंग्लैंड और रूस शामिल थे । इन दोनों गुटों की स्थापना का मुख्य उद्देश सदस्य देशों की परस्पर सहायता करना और बाहरी हमलों से अपने मित्र देश को बचाना था । अब 28 जून सन 1914 को ऑस्ट्रिया के राजकुमार आर्कड्यूक  फर्डिनेंड और उसकी पत्नी

की सर्विया की राजधानी बेस्निया में हत्या हो गई । ऑस्ट्रिया ने इस घटना के लिए सर्विया को जिम्मेदार माना । लेकिन सर्विया ने जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की । तो 28 जुलाई सन 1914 को ऑस्ट्रिया ने सर्विया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी । इस युद्ध में रुस,फ्रान्स और इंग्लैंड सर्विया की मदद करने के लिए आगे आए । तो उधर जर्मनी ऑस्ट्रिया की मदद में तैयार खडा हो गया । और 4 अगस्त सन 1914 को युद्ध शुरू हो गया जिसे प्रथम विश्वयुद्ध कहा गया । यह महायुद्ध यूरोप,अफ्रीका तथा एशिया तीनों महाद्वीपों पर  जल थल तथा आकाश में लड़ा जाने लगा । जर्मनी द्वारा किए गए आक्रमण का प्रमुख लक्ष्य वर्दूं था । शुरू में जर्मनी की सेना की जीत हुई थी । अब 1917 में जर्मनी के युद्धपोत ने एक ब्रिटेन जहाज को डुबो दिया जिसमें अमेरिका के 128 नागरिक थे । जर्मनी के इस घिंनोने कृत्य का अमेरिका को इसलिए बुरा लगा क्योंकि उस समय अमेरिका ब्रिटेन का एक उपनिवेश था । उपनिवेश होने के कारण अमेरिका को इंग्लैंड के प्रति सहानुभूति थी । अत: अमेरिका 6 अप्रैल सन 1917 को प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल हो गया । 1918 में ब्रिटेन फ्रांस और अमेरिका
तीनों का गुट जर्मनी और उसके मित्र देशों पर भारी पड़ने लगा । तो जर्मनी और ऑस्ट्रिया के अनुरोध करने पर अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉर्ड जॉर्ज तथा फ्रेंच प्रधानमंत्री क्लीमेंसा ने वर्साय की संधि द्वारा यह युद्ध समाप्त करने की घोषणा की ।  तुरंत ही जर्मनी और उसके मित्र देश ऑस्ट्रिया,हंगरी,तुर्की तथा बुल्गारिया वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए । और 11 नवंबर सन 1918 को प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त कर दिया गया वर्साय की संधि द्वारा जर्मनी से वायुयान और पनडुब्बियां रखने के अधिकार छीन लिए गए । और सार नामक जर्मनी की विशाल कोयले की खदान 15 वर्षों तक फ्रांस को दे दी गई जर्मनी के भू-भाग से पोलैंड नामक एक नया देश बना दिया गया । अफ्रीका में स्थित जर्मनी के उपनिवेश ब्रिटेन पुर्तगाल बेल्जियम तथा दक्षिण अफ्रीका को दे दिए । गए प्रथम विश्वयुद्ध में 80 लाख लोग मारे गए 60 लाख लोग अपंग हो गए । तथा एक करोड बीस लाख लोग घायल हुए थे । 80 लाख लोग लापता हो गए थे इस युद्ध मे लगभग एक अरव 86 करोड पोंड खर्चा हुआ था इससे पूर्व इतना खर्चीला मौत का खेल नहीं खेला गया था प्रथम विश्वयुद्ध में इटली को कुछ भी हाथ नहीं लगा तो इटली को दुख हुआ और आगे चलकर इटली में मुसोलिनी के नेतृत्व में फांसीवादी नामक तानाशाही शासन का उदय हुआ इस समय भारत ब्रिटेन का एक उपनिवेश था और भारत का वायसराय लॉर्ड हार्डिंग था युद्ध के समय जर्मनी ने पूरी कोशिश की यह भारतवासी इंग्लैंड के खिलाफ हो जाएं किंतु कांग्रेस नेताओं का विचार था कि स्वतंत्रता प्राप्ति को छोड़कर इस समय ब्रिटेन की सहायता करना उचित है 4 अगस्त सन 1914 को युद्ध शुरू हुआ था तो भारत के सभी राजनेताओं ने ब्रिटेन की दिल खोल कर मदद इसलिए की क्योंकि भारत के लोगों को आशा के युद्ध के बाद ब्रिटेन भारत को इनाम के रूप में स्वतंत्रता दे देगा । और यदि स्वतंत्रता नहीं तो स्वशासन तो अवश्य ही प्रदान कर देगा । लेकिन ऐसा कदापि नहीं हुआ । इस युद्ध के विनाशकारी परिणामों से विश्व के कई देश भयभीत हो गए । अतः भविष्य में शांति और समृद्धि का वातावरण बनाए रखने के लिए 10 जनवरी सन 1920 में राष्ट्र संघ की स्थापना हुई । जिसे "लीग ऑफ नेशन" कहा गया । किंतु इस संघ से जुड़े सभी देशों के नेता एक दूसरे के विरोधी होने के कारण भविष्य में शांति स्थापित करने में नाकाम रहे । और आगे चलकर "लीग ऑफ नेशन" भंग हो गई ।

Wednesday, August 23, 2017

होमरूल आंदोलन

प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन ने भारतीय राजाओं को यह आश्वासन दिया कि यदि भारत युद्ध में ब्रिटेन की सहायता करेगा तो युद्ध के पश्चात ब्रिटेन भारत को स्वतंत्र कर देगा । कांग्रेस के नेता पहले तो ब्रिटेन की सहायता करने को तैयार हो गए । किंतु शीघ्र ही भारतीय नेताओं को यह अनुमान हो गया कि ब्रिटेन भारत को कदापि स्वतंत्र नहीं करेगा । श्रीमती एनी बेसेंट

श्रीमती एनी बेसेंट एक ब्रिटिश महिला थी । वे 1893 में इग्लैण्ड से भारत आई थी । और भारत के हिंदुओं से अथाह प्रेम करने लगी । हिंदू धर्म में वे इतनी हिल-मिल गई कि स्वयं को हिंदू मानने लगी थी । और वे ऊँ नमः शिवाय बोलती थी । वे स्वयं को नारी नहीं एक पुरुष मानती थी । मेम साहब की अपेक्षा अम्मा कहलाना उन्हें पसंद था । महात्मा गांधी ने उन्हें बसंत देवी की उपाधि प्रदान की थी । तो भारतवासी सम्मान से उन्हें मां बसंत (माता बसंत) कहकर पुकारते थे । इसके अलावा श्रीमती एनी बेसेंट 'आयरन लेडी' और 'पूर्व का सितारा' नाम से भी काफी मसहूर थी । भारत में आकर वे समाज सेवा में लग गई थी । नारी मुक्ति समर्थन में एनी बेसेंट का विशेष योगदान रहा है । उन्होंने सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह,विधवा विवाह,छुआछूत,जात-पात के बंधन को दूर करने के लिए 'ब्रदर्स ऑफ सर्विस' नामक संस्था बनाई । सन 1898 में उन्होंने बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की । 1907 में थियोसोफिल  सोसाइटी की अध्यक्ष चुनी गई । सन 1914 में भारतीय राजनीति में प्रवेश किया । सन 1915 में न्यू इंडिया नामक मद्रास से एक समाचार पत्र शुरू किया । 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष चुनी गई । इनकी रचना हाउ इंडिया रोट फोर फ्रीडम नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में राष्ट्रीय कांग्रेस की कहानी है और इस ग्रंथ में इन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि माना है । रिलीजंस प्रॉब्लम इन इंडिया इनकी एक महान साहित्य कृति है । फॉरगेट रिलीजंस  धर्म पर लिखी हुई एक मशहूर पुस्तक है । इंडिया ए नेशन नामक इनकी पुस्तक को अंग्रेजो ने जप्त कर लिया था । उनकी अंतिम इच्छा थी कि मेरा अगला जन्म हिंदू परिवार में हो । और वह गंगा नदी के किनारे वाराणसी में अपना अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाज के अनुसार करवाना चाहती थी । जिसे 1933 में मद्रास में उनकी मृत्यु के बाद भारतीयों ने पूरा किया ।
1893 में इंग्लैंड से भारत आई थी । और थियोसोफिकल सोसायटी की सदस्य बनी । तिलक 1914 में बर्मा से 6 वर्ष का निर्वासित जीवन व्यतीत करके आए थे । और भारत में आकर पुनः कांग्रेस में शामिल हो गए । 28 अप्रैल 1916 में बाल गंगाधर तिलक

ने पूना में स्थित बेलगाम में इंडियन होमरुल लीग की स्थापना की । जिसका उद्देश्य अंग्रेजों को भगाना नहीं था । बल्कि भारतीयों को स्वशासन दिलाना था । बाल गंगाधर तिलक ने भारतीयों को जागृत करने के लिए "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा" यह नारा दिया । इसके साथ ही तिलक ने मराठा तथा केसरी नामक समाचार पत्रों में इसे छपवाकर इसका खूब प्रचार किया । प्रचार से प्रभावित होकर श्रीमती एनी बेसेंट ने होमरूल लीग की स्थापना सितंबर 1916 में मद्रास में की । और काफी लोगों को इस संस्था से जोड़ लिया । जिससे ब्रिटिश सरकार बेचैन हो गई । और उन्होंने आंदोलनकारियों का दमन करने के लिए अनेक तरीके अपनाए थे ।

Tuesday, August 22, 2017

वायसराय

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से भयभीत होकर ब्रिटिश सरकार ने भारत में अंग्रेजो के विरुद्ध उत्पन्न हुए असंतोष के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को उत्तरदाई ठहराया । और 1858 का एक अधिनियम बनाकर भारत का शाशन सीधे इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के अधीन करके ब्रिटेन की संसद को सोंप दिया । वायसराय को भारत में इंग्लैंड की महारानी का प्रतिनिधि बनाया गया । ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल 
                          लॉर्ड कॅनिंग 

लॉर्ड कैनिंग को भारत का प्रथम वायसराय बनाया गया । इस प्रकार लॉर्ड कैनिंग को भारत का अंतिम गवर्नर जनरल तथा भारत का प्रथम वायसराय कहते है । कैनिंग ने 1856 मे विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाकर लागू किया और  1857 मे बम्बई , मद्रास , तथा कलकत्ता मे विश्वविद्यालय खोले । कैनिंग ने इंडियन हाईकोर्ट एक्ट बनाकर बम्बई , मद्रास , तथा कलकत्ता मे उच्च न्यायालय की स्थापना की । कैनिंग ने ही मैकाले की दंड संहिता को  1858 मे कानून बनाकर 1859 मे अपराध विधान संहिता लागू की । 1861 मे लोर्ड कैनिंग ने डलहोजी की राज्य हडप नीति की प्रथा को समाप्त कर दिया । लोर्ड कैनिंग के समय 1 नवम्बर 1958 को इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया ने घोषणा की कि अंग्रेजी राज्य में अब भारत का कोई भी नवीन क्षेत्र नहीं मिलाया जाएगा । भारतीयों की रीति रिवाज एवं प्राचीन परंपराओं का सम्मान किया जाएगा । भारतीय राजाओं के सम्मान एवं अधिकारों का हनन नहीं किया जाएगा । उनके अधिकार सुरक्षित रहेंगे । प्रशासनिक सेवाओं मैं जाति एवं धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया जाएगा । भारतीय प्रजा को ब्रिटिश प्रजा के समान माना जाएगा । इंग्लैंड की महारानी कि इस घोषणा का भारत में स्वागत हुआ । तथा शिक्षित वर्ग ने इसकी प्रशंसा की । किंतु इसके वादे मात्र छलावा सिद्ध हुए । क्योंकि ब्रिटिश सरकार के लिए इंग्लैंड के हित सर्वोपरि थे । और भारत के हित महत्वहीन । 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ने अंग्रेजी शासन की नीव हिला दी थी । इसलिए अंग्रेजों ने पुनः सोच समझकर ऐसे सैनिक नियुक्त किए जो उनके विरुद्ध शस्त्र न उठा सकें । अंग्रेजो ने भारतीय सैनिकों की संख्या कम करके इंग्लैंड और यूरोपिय सेना में वृद्धि की । अंग्रेजों ने इस ढंग से सेना को सुसज्जित किया कि यदि कोई एक सेना विद्रोह करें तो दूसरी सेना उसे आसानी से दबा दे । भारतीय सेनाओं को युद्ध के लिए विदेश भेजा जाने लगा । ब्रिटिश सरकार ने अपनी आर्थिक नीति में परिवर्तन कर दिया । अंग्रेजों ने भारतीयों के पूर्ण दोहन एवं शोषण की नई प्रवृत्ति को अपनाया । ब्रिटिश सरकार ने आयकर को समाप्त कर दिया । जिससे भारत में स्वतंत्र व्यापार की नीति प्रारंभ हो गई । तथा अनेक विदेशी कंपनियों ने भारत में व्यापार करने का अड्डा बना लिया । जिससे भारत के उद्योग धंधे समाप्त होने लगे । यह नई नीतियां सिर्फ इंग्लैंड के हित में बनाई गई थी । अंग्रेजों ने ऐसी नीति चलाई जिसे भारतीय जमींदार और साहूकार फलने फूलने लगे । तथा ग्रामीण और मजदूरों की स्थिति दयनीय होने लगी । मजदूरों का शोषण होने से बाल मजदूरी को प्रोत्साहन मिला । जो भारतीयों के हित में नहीं था । इस प्रकार की नई नीति के कारण भारत का विकास रुक गया । अब अंग्रेजों को स्पष्ट हो गया कि भारत जैसे विशाल देश पर भारतीयों की सहायता के बिना शाशन करना बुद्धिमानी नहीं है और उन्होंने भारतीयों को शासन में सम्मिलित करना उचित समझकर 1858 का एक अधिनियम बनाकर उसे पारित किया । इस कानून से अंग्रेज़ो की वह नीति प्रारम्भ हुई जिसे "सहयोग की नीति" या "उदार निरंकुशता" का नाम दिया गया   इस अधिनियम द्वारा भारत में सचिव पद का निर्माण किया गया । भारत के सचिव को सरकार की समस्त जिम्मेदारियां सौंपी जाती थी । वह इंग्लैंड में रहकर भारतीय प्रशासन का पूर्ण ध्यान रखता था । तथा इंग्लैंड की सरकार के प्रति उत्तरदाई था । इसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक परिषद बनाई गई । जिसे 'इंडिया कौंसिल' के नाम से जाना जाता था । इंग्लैंड में परिषद के इस कार्यालय को इंडिया ऑफिस करते थे । भारतीय सचिवालय के सभी कर्मचारियों के वेतन तथा अन्य खर्चों की राशि भारत से वसूली जाती थी । भारत के वायसराय लॉर्ड कैनिंग को सर्वोच्च प्रशासनिक पदाधिकारी माना जाता था । वायसराय की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक समिति बनाई जाती थी । उसे परिषद करते थे । लोर्ड कैनिंग ने 1861 मे भारतीय परिषद अधिनियम बनाया यह पहला ऐसा अधिनियम था जिसमे विभागीय प्रणाली एवं मंत्रिमंडल प्रणाली की नीव रखी गई । इस अधिनियम मे प्रान्तो को स्थानीय या प्रांन्तीय विषयो के सम्बन्ध मे कानून बनाने का अधिकार दिए गए ।  1861 का अधिनियम भारत के संवैधानिक विकास के लिए किया गया था । इस अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल कौंसिल के सदस्यों की संख्या 4 से बढ़ाकर 5 कर दी गई । इसी प्रकार लेजिस्लेटिव कौंसिल सदस्यों की संख्या 4 से बढ़ाकर 12 कर दी गई । फिर भी कानून पर वायसराय की  स्वीक्रति आवश्यक थी । वायसराय को इनकी राय ठुकराने का पूर्ण अधिकार था । लोर्ड कैनिंग के बाद 1862 मे
                     लॉर्ड एल्गिन प्रथम 

लॉर्ड एल्गिन प्रथम वायसराय बना । जिसने बहावी आंदोलन का दमन किया । यह 1 वर्षों तक अपने पद पर रह पाया था कि भारत में ही इसकी मृत्यु हो गई । इसके के बाद 1863 मे
                      सर जॉन लॉरेन्स

 सर जॉन लॉरेंस वायसराय बना सर जॉन लॉरेंस ने पाकिस्तान के संबंध में अहस्तक्षेप की नीति अपनाई जिसे शानदार निष्क्रियता कहते हैं सर जॉन लॉरेंस के समय भूटान का महत्वपूर्ण युद्ध हुआ सर जॉन लॉरेंस के समय भारत में 1866 - (से 1878 तक) से भयानक अकाल पडना शुरु हुआ । अकाल के साथ साथ चेचक तथा बुखार भी फैलने लगा । इसने जॉन कैंपबेल के नेतृत्व में एक अकाल आयोग का गठन किया । सर जोन लोरैंस ने 1865 में भारत एवं यूरोप के बीच प्रथम समुद्री टेलीग्राम  सेवा शुरू की गई  । सर जॉन लॉरेंस के समय पंजाब में काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया । इसके बाद 1869 मे 
                       लॉर्ड मियो

लॉर्ड मियो भारत का वायसराय बना । इसनेअजमेर मे मियो कॉलेज की स्थापना की । 1870 में लोर्ड मियो ने वित्त के विकेंद्रीकरण की शुरुआत की । भारत में जनगणना की शुरुआत 1872 में लोर्ड मियो के शासनकाल में शुरू हुई । लोर्ड मियो ने 1872 में एक कृषि विभाग की स्थापना की । 1872 में अंडमान निकोबार दीप समूह में एक अफगान कैदी शेर खान ने चाकू मारकर लोर्ड मियो की हत्या कर दी । इसके बाद 1872 
                        लॉर्ड नॉर्थब्रुक 

लोर्ड नोर्थब्रुक  वायसराय बना । इसके शासनकाल में बंगाल में भीषण अकाल पड़ रहा था । इसने मल्हाराव गायकवाड़ को भ्रष्टाचार के आरोप में पद से हटाकर करके मद्रास भेज दिया था ।पंजाब का प्रसिद्ध कूका आंदोलन लॉर्ड नॉर्थबुक के समय हुआ । लार्ड नार्थ ब्रुक ने घोषणा की कि मेरा उद्देश्य करों को हटाना तथा आवश्यक वैधानिक कार्यवाही को बंद करना है ।
                           लॉर्ड लिटन 


   1875 में लॉर्ड लिटन वायसराय बना । लॉर्ड लिटन को प्रशासनिक अनुभव था । लिटन एक प्रसिद्ध उपन्यासकार निबंध लेखक और साहित्यकार था । इसलिए साहित्य जगत मैं लिटन को ओवन मेरिटिस के नाम से जाना जाता है । इस समय भारत में भीषण अकाल पड़ रहा था । तो लिटन ने रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में एक अकाल आयोग की स्थापना की । 1 जनवरी सन 1877 को लिटन ने इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को दिल्ली में "कैंसर ए हिंद" की उपाधि से सम्मानित किया । 1878 में लॉर्ड लिटन ने वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम पारित कर भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रीय समाचार पत्र  सोन प्रकाश पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया । जिसका भारतीयों ने घोर विरोध किया । 1878 में लिटन ने भारतीय सस्त्र अधिनियम बनाया । इसके तहत अस्त्र-शस्त्र बेचने वाले भारतीय व्यापारियों को लाइसेंस रखना अनिवार्य कर दिया ।  लिटन ने अलीगढ़ में एक मुस्लिम-ऐग्लो -प्राच्य महाविद्यालय की स्थापना की । लॉर्ड लिटन ने मुक्त व्यापार की नीति का अनुसरण किया । उसने 29 वस्तुओं पर आयत कर हटा दिया । जिसका परिणाम यह हुआ कि समुद्री व्यापार मे व्रद्धि हुई । 1879 में लॉर्ड लिटन ने वैधानिक नागरिक सेवा की स्थापना करके सिविल सेवा परीक्षा में भारतीयों के सम्मिलित होने की अधिकतम आयु 20 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करवा दी थी । इसकी भारतीय जनता ने कडी आलोचना की और इसका घोर विरोध किया । उसने ऐसा नियम बनाया कि अब अब तक जिन पदों पर नियमित नागरिक सेवाओं के सदस्य काम करते थे उन पर वायसराय तथा भारत मंत्री द्वारा स्वीकृत तथा स्थानीय सरकारों द्वारा मनोनीत जन्म से भारतीय व्यक्ति ही नियुक्त किए जाएंगे ।  उपयुक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि लॉर्ड लिटन ने जो कार्य किए उसमें अधिकतर कार्य भारत के अहित में थे । इसलिए उसकी इतनी ज्यादा आलोचना की गई थी उतनी किसी दूसरे वायसराय की नहीं हुई ।

   लॉर्ड रिपन --- 1880 - 1884


     1880 में लॉर्ड रिपन वायसराय बना । लॉर्ड रिपन ने द्वितीय अफगान युद्ध को समाप्त कर दिया । 1882 से लॉर्ड रिपन के शासनकाल से नियमित जनगणना की शुरुआत हुई । लॉर्ड रिपन 1882 में समाचार पत्रों की स्वतंत्रता को बाहाल करते हुए लॉर्ड लिटन के बनाए हुए वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट को समाप्त कर दिया । जिसकी भारतीयों ने द्रढता से आलोचना की थी । लॉर्ड रिपन ने नमक और कई वस्तुओं पर से संपूर्ण भारत में कर को कम कर दिया था ।  इसने स्वतंत्र व्यापारिक नीति को पूर्ण किया । इसने 1881 में प्रथम भारतीय फेक्टरी अधिनियम बनाकर 7 से 12 वर्ष के लड़कों को 9 घंटे से ज्यादा काम पर नहीं लगाने का नियम बनाया । लॉर्ड रिपन के समय शैक्षिक सुधारों के अंतर्गत विलियम हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया । जिसे हंटर आयोग कहते है । इस आयोग ने 1882 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । लॉर्ड रिपन के समय भारतीय नागरिकों की सिविल परीक्षा में शामिल होने की अधिकतम आयु 18 वर्ष थी । और यह परीक्षा इंग्लैंड में होती थी । जिसमें भारतीय नागरिकों का सम्मिलित होना काफी कठिन था । रिपिन ने भारतीय नागरिकों की सिविल परीक्षा में सम्मिलित होने की अधिकतम आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष करवा दी थी । लॉर्ड रिपन के शासनकाल में 1873 की भारतीय दंड संहिता के अनुसार यूरोपीय अपराधी के मुकद्दमों को सुनने का अधिकार सिर्फ यूरोपीय जज का था । इलबर्ट भारत सरकार का विधि सदस्य था । इसलिए उसने भारतीय मजिस्ट्रेटों को समान अधिकार दिलाने के लिए एक विधेयक बनाया । जिसे इल्बर्ट विल करते हैं । लॉर्ड रिपन और उसकी कौंसिल के स्वीकार होने के बाद यह बिल देश की विधानसभा में स्वीकार किया गया । लेकिन यूरोपीय जाति ने इस बिल की कटु आलोचना करते हुए विद्रोह कर दिया तो इस बिल को वापस लेना पड़ा । यूरोपीय जाति के इस विद्रोह को श्वेत विद्रोह के नाम से जाना गया । और समस्त यूरोपीय जाती ने नाराज होकर लॉर्ड रिपन को दरबार में उसे खरी-खोटी सुना कर उसका अपमान किया । और इंग्लैंड की सरकार ने इस बिल को स्वीकृति प्रदान नहीं की । इस प्रकार लार्ड रिपन अपने सभी देशवासियों का शत्रु बनने लगा तो उसने घबराकर 1884 में वायसराय के पद से इस्तीफा दे दिया । लॉर्ड रिपन ने अपने शासनकाल में भारतीयों के हित में कार्य किए । इसीलिए भारतीय जनता उसे दिल से चाहती थी ।  तभी तो वायसराय लॉर्ड रिपन इस्तीफा देकर अंतिम बार मुंबई की यात्रा कर रहा था तो उसके स्वागत के लिए भारतीय जनता का हुजूम वहां उमड पड़ा और सभी नागरिकों ने उसकी प्रशंसा की । इस प्रकार लोर्ड रिपिन को भारत के स्वराज्य तथा राष्ट्रीयता की प्रगति का सूत्रधार कहा जाता है । 

 लॉर्ड डफरिन --- 1884 - 1888


लॉर्ड लॅन्सडाऊन -- 1888 - 1894

लॉर्ड एल्गिन द्वतीय --- 1894 - 1899

लॉर्ड कर्जन  ---- 1899 - 1905

लॉर्ड मिंटो ---- 1905 - 1910




लॉर्ड हैस्टिंग ---- 1910 - 1916

लॉर्ड चेम्सफोर्ड --- 1916 - 1921



  1915 मे अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लोटे । और उन्होंने गोपाल क्रष्ण गोखले को अपना राजनैतिक गुरू बनाया । गांधी जी ने भारत मे आकर ठहरो और स्थिति का अध्यन करो और आगे बडो की नीति अपनाई । इस प्रकार भारत के राजनीतिक क्षेत्र में महात्मा गांधी का प्रवेश नवीन युग के प्रारंभ का सूचक माना जाता है । महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय आंदोलन को नया स्वरुप प्रदान किया । महात्मा गांधी के नेतृत्व में अनेक आंदोलन हुए । गांधीजी का भारत में पहला सत्याग्रह 1917 में बिहार के चंपारण से शुरू हुआ था । वहां के किसानों पर गोरे भारी अत्याचार कर रहे थे । गोरों ने तिनकठिया नामक एक नियम बनाया था । जिसके द्वारा किसानों को अपनी जमीन के एक हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य होती थी । जो बाद में अंग्रेजों द्वारा लूट ली जाती थी । गांधीजी भी स्थिति का जायजा लेने के लिए वहां पहुंचे । तो उनके दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ वहां पर उमड़ पड़ी। किसानों ने अपनी सारी समस्याएं गांधीजी को बता दी। तो इससे पुलिस हरकत में आ गई । पुलिस सुपरडेंट ने गांधी जी को जिला छोड़ने का आदेश दिया । तो गांधीजी ने यह आदेश मानने से इनकार कर दिया । अगले दिन गांधीजी को कोर्ट में हाजिर होना था । तो हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा हो गई । गांधीजी के समर्थन में नारे लगाए जा रहे थे । हालात की गंभीरता को देखते हुए मजिस्ट्रेट ने पहले तो गांधीजी पर सौ रुपए का जुर्माना लगाया किंतु गांधीजी ने जुर्माना देने से इनकार कर दिया । तो फिर बाद में बिना जमानत के गांधी जी को छोड़ने का आदेश दिया । लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार सजा की मांग की । अब ब्रिटिश सरकार ने मजबूत होकर एक जांच आयोग नियुक्त किया । गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाया गया । परिणाम सामने था इसलिए कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया । वहां के किसान अपनी जमीन के मालिक बन गए । और गांधीजी ने भारत में अपनी पहली सत्याग्रह विजय का शंख फूंक दिया । गांधी जी चंपारण में ही थे । तभी अहमदाबाद के मिल मजदूरों ने उन्हें बुलाने का निमंत्रण भेजा । मिलों के मालिक मजदूरों को कठोर यातनाएं दे रहे थे । उनसे वेतन की अपेक्षा काम अधिक कराया जा रहा था । गांधीजी ने दोनों पक्षों से बातचीत करने के बाद उनका निर्णय मजदूरों के पक्ष में गया । लेकिन मिल मालिक मजदूरों को कोई भी आश्वासन देने को तैयार नहीं हुए । तो गांधीजी मजदूरों के साथ भूख हड़ताल पर बैठ गए । अब मालिक और मजदूरों के बीच एक बैठक हुई । जिससे समस्या का हल निकल गया । तो हड़ताल समाप्त कर दी गई । गुजरात के खेड़ा जिले में फसल बर्बाद हो चुकी थी । अंग्रेज गरीब किसानों से लगान चुकाने के लिए दबाव डाल रहे । थे गांधीजी ने एक गांव से दूसरे गांव के लिए किसानों के साथ पैदल यात्रा शुरू कर दी । और उन्होंने किसानों से कहा कि वे जब तक सत्याग्रह के मार्ग पर लगातार चलते रहे तब तक सरकार उनका लगान माफ करने की घोषणा न कर दे । चार महीने तक यह संघर्ष चला । इसके बाद सरकार ने गरीब किसानों के लगान माफ करने की घोषणा कर दी । 
          
      अब गांधी जी ने मुस्लिम जनता को अपने साथ सम्मिलित करके अंग्रेजी हुकूमत से लडना उचित माना । प्रथम विश्वयुद्ध में इंग्लैंड ने तुर्की को पराजित कर सीवर्स की संधि द्वारा खलीफा के पद को समाप्त कर दिया । ब्रिटेन के इस कार्य की भारत के मुसलमानों ने घोर निंदा की । और 1919 में मोहम्मद अली जिन्ना तथा मौलाना आजाद के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरोध में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ । जिसमे गांधी जी के साथ सम्पूर्ण कांग्रेस कमैटी ने मुसलमानों का पूर्ण सहयोग किया । इस प्रकार भारत की राजनीति मे गांधी युग की शुरुआत हुई । 
अब 8 मार्च 1919 को ब्रिटिश सरकार ने रोलेक्ट एक्ट पारित किया । जिसमें ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार प्राप्त हुए की पुलिस संदेह के घेरे में आने वाले किसी भी व्यक्ति को बिना किसी प्रमाण के गिरफ्तार करके सजा सुनाई जा सकती है । इसे आतंकवादी अपराधी अधिनियम भी कहा गया । भारतीयों ने इस बिना अपील , बिना वकील और बिना दलील के लागू होने वाले कानून की घोर निंदा की । और गांधीजी ने इसे शैतान सरकार का काला कानून कहा । इसके विरोध में पूरे देश में 1 दिन का उपवास रखा गया । और दुकानें बंद तथा हड़ताल रही । 6 अप्रैल का दिन राष्ट्रीय अपमान दिवस के रूप में मनाया गया गांधीजी ने असहयोग आंदोलन चलाने का निश्चय कर लिया । इस एक्ट का पूरे देस मे विरोध होने लगा । पंजाब मे इस एक्ट का विरोध कर रहे पंजाब के लोकप्रिय नेता सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू 
                              
को अंग्रेजों ने बिना किसी अपराध के गिरफ्तार करके काले पानी की सजा सुना दी थी । जिसके विरोध में लोगों ने एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला । जिसे अंग्रेजों ने काफी रोकने का प्रयास किया किंतु वह सफल नहीं हुए । तो जुलूस करने वाले लोगों ने गुस्से में आकर सरकारी इमारतों में आग लगा दी । अमृतसर की ऐसी स्थिति से घबराकर सरकार ने 10 अप्रैल 1919 को शहर का प्रशासन सैन्य अधिकारी जनरल डायर 
                            
को सौंप दिया । जिसने सभा आयोजन एवं प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया । मगर यह सूचना जनता को पता नही चल पाई । 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में लोगों ने एक विरोध सभा का आयोजन किया । जिसमें लगभग 10 हजार लोग एकत्रित होकर अपने काम मे लगे हुए थे । तभी अचानक जनरल डायर अपने 90 सशक्त सैनिकों के साथ वहां आकर मुख्य द्वार को घेर लेता है । और लोगों को सूचित किए बिना सैनिकों को गोलियां चलाने का आदेश दे देता है । सैनिकों  देखते ही देखते 1650 गोलियां लोगों के सीने में दाग देते है । सैकड़ों लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग में स्थित कुए में जिंदा कूद जाते है । भारी हडकंप मच जाता है । इसमें लगभग 1 हजार लोग मारे  जाते हैं । और 2 हजार से ज्यादा लोग बुरी तरह घायल हो जाते है । ब्रिटिश सरकार जनरल डायर को पद से हटा देती है । किंतु उसकी निंदा नहीं करती है । बल्कि उसे ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करने वाला शेर मानकर उसे एक रत्न जडित तलवार भेंट करती है । इस दावानल कार्य की पूरा संसार  निंदा  करता है । डायर की क्रूरता भरी करतूत से अनेक अंग्रेजों की आत्मा तक कांप जाती है । भारतीय क्रांतिकारी उधम सिंह  13 अप्रैल 1940 को लंदन में जनरल डायर को गोली से मारकर इस हत्याकांड का बदला लेता है । उधम सिंह को 4 जून सन 1940 को इंग्लैंड में फांसी दे दी जाती है । 
        ब्रिटिश सरकार की दमन नीति अत्याचार और जलियांवाला बाग हत्याकांड से दुखी होकर गांधीजी ने 31 अगस्त 1920 को असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया । सितम्बर 1920 मे कांग्रेस का अधिवेसन कलकत्ता मे हुआ । जिसकी अध्यक्षता लाला लाजपतराय ने की । इस अधिवेसन मे गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा । इसके बाद दिसम्बर 1920 मे कांग्रेस का अधिवेसन नागपुर मे हुआ । इस अधिवेसन की अध्यक्षता वीर राघवाचार्य ने की । इस अधिवेसन मे असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पास कर दिया गया । और संपूर्ण भारत में इसकी सूचना पहुंचा दी । इस आंदोलन में संपूर्ण भारत में विदेशी वस्तुओं एवं कपडों का बहिष्कार करके स्वदेशी वस्तुऐं एवं खादी के वस्त्र अपनाने की घोषणा की गई । कई लोगों ने सरकारी उपाधि और अवेतनिक पदों को त्याग दिया । और सरकारी तथा अर्धसरकारी उत्सवों का बहिष्कार किया । कई स्थानों पर लोगों ने सरकारी व सरकार से सहायता प्राप्त विद्यालयों से अपने बच्चे हटा लिए । और राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान बनाने की मांग की । इस आंदोलन में लोगों ने ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित किसी भी प्रकार के चुनाव में हिस्सा न लेने का वादा किया । और अंग्रेजी न्यायालयों का बहिष्कार करके अपने विवादों का निर्णय सीधे पंचायतों द्वारा करने की घोषणा स्वीकार की । जब असहयोग आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था । तब चोरी चौरा नामक स्थान पर एक अप्रिय घटना घट गई । जिसके कारण गांधी जी को असहयोग आंदोलन स्थगित करना पडा । 5 फरवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चोरी-चौरा ग्राम मे कांग्रेस का जुलूस अनियंत्रित भीड़ के साथ निकल रहा था । तभी अचानक पुलिस ने इन आंदोलनकारियों पर गोली चला दी । जिससे जनता अनियंत्रित हो गई । और जनता ने पुलिस थाने को घेरकर उसमे आग लगा दी । जिसमें 21 सिपाही और एक थानेदार जलकर मर गए । अहिंसा के पुजारी गांधी इस हिंसा को कैसे बर्दाश्त करते थे । इसलिए 12 फरवरी 1922 को गांधीजी को असहयोग आंदोलन स्थगित करना पडा । गांधी जी के इस फैसले की संपूर्ण भारत में आलोचना की गई । ब्रिटिश सरकार ने 10 मार्च 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर 6 वर्ष के लिए जेल भेज दिया । किंतु बाद में गांधीजी के बीमार हो जाने के कारण उन्हें समय से पूर्व 5 फरवरी 1924 को रिहा कर दिया गया



लॉर्ड रिडिंग ---- 1921 - 1926


        कांग्रेस के प्रशिद्ध नेता चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू का मानना था कि गांधीजी की गिरफ्तारी से भारतीय राजनीति में एक रिक्तता आई है । इस रिक्तता को भरना जरूरी है । इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए 1 जनवरी सन 1923 को चितरंजन दास एवं मोतीलाल नेहरू ने इलाहाबाद में स्वराज पार्टी की स्थापना की । उनका मानना था कि गांधी जी को असहयोग आंदोलन वापस नहीं लेना चाहिए था । क्योंकि इस आंदोलन को ब्रिटिश हुकूमत को भयभीत करने वाली सफलता मिल रही थी । अब कांग्रेस की गांधीवादी नीति मे बदलाव करना उचित है । बदलाव के लिए इन्होने कांग्रेस पार्टी की अनुमति मांगी तो डॉ.राजेंद्र प्रसाद और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने इसका विरोध किया । क्योंकि ये गांधीवादी नीति में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहते थे । अब स्वराज दल के नेताओं ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया । इस प्रकार इनकी स्वराज पार्टी को कांग्रेस के खिलाफ हो गई । इसके अध्यक्ष चितरंजन दास तथा सचिव मोतीलाल नेहरु बने । जिसका उद्देश्य भारत को स्वराज दिलाना था । बाद में जब गांधीजी जेल से वापिस आ गए तो 6 नवंबर 1924 को स्वराज पार्टी के नेताओं को कांग्रेस का अभिन्न अंग घोषित कर दिया । किंतु 1925 में चितरंजन दास की मृत्यु के बाद इस पार्टी का अंत हो गया ।   






लॉर्ड एर्विन ---- 1926 - 1931

     1926 में लॉर्ड इरविन भारत का वायसराय बना । इसके समय में 1927 में साइमन कमीशन भारत आया  था । साइमन कमीशन 1919 के अधिनियम की व्यवस्था का मूल्यांकन करने के लिए एक आयोग लेकर भारत मे आया था । इस आयोग के अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे । इसे 'साइमन आयोग' भी कहते हैं । इस आयोग के अध्यक्ष और सभी 7 सदस्य अंग्रेज थे । इस कमीशन में एक भी भारतीय नहीं था । इस कमीशन ने जिन बातों पर विचार करने को कहा था । उससे भारतीय जनता को स्वराज्य प्राप्त करने की जरा सी भी आशा नहीं थी । अतः भारतीय जनता ने इस आयोग का घोर विरोध किया । यह आयोग 3 फरवरी 1928 को मुंबई पहुंचा । तो उसे दिन सारे देश में हड़ताल रही । और उसे जगह जगह काले झंडे दिखाए गए । और 'साइमन वापस जाओ' के नारे लगाए गए । मुंबई एक स्थान पर इस कमीशन का विरोध लालालाजपतराय कर रहे थे । उनके सीने और शरीर में पुलिस अधिकारी सांण्डर्स की लाठियों की गहरी चोट लगने से लाला लाजपत राय का देहांत हो गया । 

लार्ड इरविन के समय 28 अगस्त सन 1928 को पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की गई  थी । जिसमें भारतीय संविधान का प्रारूप तैयार किया गया था । किंतु मुस्लिम लीग ने नेहरू रिपोर्ट के प्रावधानों को खारिज कर दिया । और जिन्ना ने अपना 14 सूत्री फार्मूला बनाया । जिसे जिन्ना फोर्मूला नाम दिया गया । 1928 मे मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा बनाए गए जिन्ना फार्मूला में जिन्ना ने निर्वाचन मंडल के साथ केंद्रीय तथा प्रांतीय सदस्यों में एक तिहाई प्रतिनिधित्व मुसलमानों को देने की बात रखी गई थी । 

  लॉर्ड इरविन के समय 1929 में प्रसिद्ध लाहौर षड्यंत्र कारी जतिन दास की 64 दिन की भूख हड़ताल के बाद जेल में ही मृत्यु हो गई थी  लॉर्ड इरविन के समय 1929 में दिल्ली के असेंबली हॉल में बम फेंका गया  जिसे फेंकने की योजना भगतसिंह ने बनाई थी भगत सिंह ने केंद्रीय असेंबली कलकत्ता में अपनी मित्र सुखदेव और राजगुरु के साथ मिलकर दो बम फेंके थे इसीलिए तीनों को एक साथ 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी

      लॉर्ड इरविन के समय 1930 में नेहरू रिपोर्ट के अस्वीकृत हो जाने के बाद चारों और असंतोष का वातावरण था । गांधी जी ने 2 मार्च 1930 को वायसराय लॉर्ड इरविन को एक पत्र लिखकर 11 सूत्रीय मांग प्रस्तुत की साथ में यह चेतावनी भी दी कि यदि उनकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो वह नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू कर देंगे । जैसा कि अनुमान था कि मांगों के प्रति लोर्ड इर्विन का उत्तर अत्यंत असंतोषजनक निकला ।  तो कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने गांधी जी को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अंग्रेजो के विरुद्ध आंदोलन करने का अधिकार दे दिया । सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रारंभ दांडी यात्रा की ऐतिहासिक घटना से हुआ । 12 मार्च 1930 को गांधीजी ने अपने 78 साथियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी के लिए प्रस्थान किया । इन्होंने गुजरात के समुद्र तट पर स्थित दांडी गांव तक की लगभग 240 मीर की यात्रा 24 दिनो मे पूरी की । और 6 अप्रैल 1930 को नमक कानून तोडा । इसी के साथ ही पूरे भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु हो गया । कई स्थानों पर लोगों ने ब्रिटिश सरकार के नमक कानून को तोड़कर स्वम नमक बनाना शुरु कर दिया । भारतीय विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल व कॉलेजो का बहिष्कार कर दिया । सरकारी कर्मचारियों ने अपने दफ्तर त्याग दिए। कई जगहों पर लोगों ने सरकार को टैक्स देना बंद कर दिया । सविनय अवज्ञा आंदोलन बड़ी तेजी से देश के गांव-गांव तक फैला । स्त्रियों ने शराब और अफीम की दुकानों पर धरना दिया गया । विदेशी वस्त्रों को इकट्ठा करके उनकी होली जलाई गई । महिलाओं ने बहुत बड़ी संख्या में इस आंदोलन में भाग लिया । खान अब्दुल गफ्फार खां सीमान्त गांधी के नाम से मसहूर हुए । उन्होंने उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत में खुदाई खिदमतगार नामक संगठन की स्थापना की । यह संगठन काली कुर्ती के नाम से  प्रसिद्ध हुआ । सरकार ने दमन नीति अपनाई । गांधीजी आदि बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए । 90 हजार से अधिक लोग जेल में डाल दिए गए । सविनय अवज्ञा आंदोलन की बढ़ती हुई तीव्रता से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की । कि भारत के सभी राजनैतिक दलों से एक एक प्रतिनिधियों को लंदन में भारतीय संवैधानिक समस्या के सम्बन्ध मे उनसे बात करने के लिए गोलमेज सम्मेलन में बुलाया जाएगा 

    लॉर्ड विलिंगटन ---- 1931 - 1936


      1931 में लॉर्ड विलिंगडन भारत का वायसराय बना । 

। प्रथम गोलमेज सम्मेलन (12 नवंबर 1930 से 19 नवंबर 1931 तक) लंदन में हुआ । इस सम्मेलन में भारत से 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया । इस सम्मेलन में जिन्ना और डॉ.अंबेडकर ने भाग लिया । लेकिन कांग्रेस ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया था । ब्रिटिश सरकार इस बात को जानती थी की कांग्रेस की उपस्थिति के बिना कोई फैसला संभव नहीं है । तो ब्रिटिश सरकार ने इस सम्मेलन को कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया । और भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन ने महात्मा गांधी को एक पत्र लिखकर समझौते के लिए बुलाया । अब 5 मार्च 1931 को महात्मा गांधी और वायसराय लॉर्ड इरविन के बीच  दिल्ली मे एक समझौता हुआ । जिसे गांधी-इरविन समझौता कहते हैं । इसे समझते हैं लॉर्ड इरविन ने कहा कि हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया जाएगा । भारतीयों को समुद्र के किनारे नमक बनाने का अधिकार दे दिया जाएगा । आंदोलन के दौरान त्यागपत्र देने वालों को उनके पदों पर पुनः बाहाल कर दिया जाएगा । भारतीय शराब एवं विदेशी कपड़ों की दुकानों पर के सामने धरना दे सकते हैं । आंदोलन के दौरान जब्त की गई संपत्ति को वापस कर दिया जाएगा । कांग्रेस की तरफ से गांधीजी ने कहा सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया जाएगा । कांग्रेस ब्रिटिश सामान का बहिष्कार नहीं करेगी । कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी । इस प्रकार ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस की तरफ से महात्मा गांधी दोनों के बीच यह प्रथम समझौता हुआ । अब दूसरा गोलमेज सम्मेलन (7 सितंबर 1931 से 1 दिसंबर 1931 तक) मे लंदन में हुआ । जिसमें गांधीजी , अंबेडकर , सरोजिनी नायडू एवं मदन मोहन मालवीय पहुंचे । इस सम्मेलन में गांधीजी ने कहा कि कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो सभी धर्मों का सम्मान करती है यह समस्त भारतीय जातियों का एक मानकर सभी का प्रतिनिधित्व करती है । मैं भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहा हूं । लेकिन ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी की इस मांग को स्वीकार नहीँ किया । भारत से गए दूसरे दलों के लोगों ने अपनी अपनी जाति के अनुसार अलग-अलग निर्वाचन मंडल की मांग की । गांधी जी चाहते थे कि भारत में एकता बनी रहे । लेकिन भारत की दूसरी जाति के लोग इस एकता का विखंडन करना चाहते थे । इस तरह गांधीजी की निराश होकर वापस लौट आए । और उन्होंने भारत में आकर पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया । ब्रिटिश सरकार ने गांधीजी और सरदार पटेल को गिरफ्तार करके कांग्रेस को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया  ।द्वतीय गोलमेज सम्मेलन के बाद 16 अगस्त 1932 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैक्डानल्ड ने सांप्रदायिक पंचांट बनाकर भारत को जातियों के आधार पर बांट दिया । उन्होंने हिंदू , मुसलमान और सिक्खो को अलग अलग तथा भारत के हरिजनों को हिंन्दुओं से अलग कर दिया । इन सभी के लिए अलग अलग निर्वाचन मंडल की घोषणा की । भारत को तोड़ने और जातियों में विभक्त करने की ब्रिटिश सरकार की यह कूटनीतिक चाल थी । कांग्रेस ने इसका विरोध किया । गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार को चेतावनी दी कि वह अपना यह निर्णय वापिस ले नहीं तो में आमरण अनसन करुंगा ।  मेक्डानल्ड ने कहा  सारी दुनियां हमारे सामने मस्तक झुकाए खडी है और यह कम बक्त बुड्डा हमें झुकने को कह रहा है जो हमेशा से हमारा पक्का दुश्मन  है । जब गांधी जी की यह बात नहीं मानी गई तो वे 20 सितम्बर 1932 को जेल में 21 दिन के अनसन पर बैठ गए । इस समय गांधीजी पुणे की यरवदा जेल में थे । मदन मोहन मालवीय ने 25 दिसम्बर सन 1932 को गांधीजी और अंबेडकर के बीच एक समझौता करवाया । जिसमें गांधी जी ने दलितों की 71 सीटों को बढ़ाकर 147 करा दी । तो अंबेडकर ने यह संयुक्त निर्वाचन मंडल स्वीकार कर लिया । जिसे पूना पैक्ट कहा गया ।  पूना समझौता होने के बाद गांधीजी ने अपना अनसन तोड दिया । 1 मई 1933 को सविनय अवज्ञा आन्दोलन समाप्त कर दिया । अब तीसरा गोलमेज सम्मेलन (17 नवंबर 1932 से 24 दिसंबर 1932) लंदन मे हुआ । इस सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार को आशा थी कि इस सम्मेलन में कांग्रेस जरूर भाग लेगी लेकिन इस सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया । तीनों सम्मेलन की सिफारिश के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने एक श्वेत पत्र जारी किया । और प्रस्ताव पर विचार करने के लिए वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता में एक संयुक्त संसदीय समिति नियुक्त की गई । लॉर्ड लिनलिथगो की सिफारिश में कुछ बदलाव करके 3 अगस्त 1935 को भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया । जिसमें 461 धाराएं एवं 15 परिशिष्ट रखे । इस प्रकार 1935 में एक संघीय न्यायालय और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की गई ।

  लॉर्ड लिनलिंथगो ---- 1936 - 1944


1936 मे लोर्ड लिनलिंथगो भारत का नया वायसराय बना । इसने 1935 के एक्ट के अनुसार 1937 में प्रांतों में चुनाव कराए । जिसमे पाकिस्तान सहित सम्पूर्ण हिन्दुस्तान को 11 प्रांतों मे विभाजित किया गया था । जिसमें 11 प्रांतो ये से 7 प्रांतों में कांग्रेस को और 4 प्रांतों मे मुस्लिम लीग को सफलता मिली थी । 

लॉर्ड लिनलिथगो के समय 1939 में कांग्रेस का अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ था । जिसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष चुना गया था । जबकि महात्मा गांधी पट्टाभि सीतारमैया को अध्यक्ष बनना चाहते थे । इसलिए महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बीच इस त्रिपुरी अधिवेशन में मतभेद की स्थिति बनी गांधी जी के नाराज होने से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया । और अपनी एक नई फॉरवर्ड ब्लॉक नामक पर्टी बनाकर क्रांतिकारी भावना का प्रचार करने लगे । तो अंग्रेजो ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को बंदी बनाकर कैदखाने मे डाल दिया । नेताजी सुभाष चंद्र बोस गुप्त रुप से एक मुस्लिम स्त्री का वेश धारण करके पुलिस को चकमा देकर जर्मनी और फिर वहां से जापान पहुंचे । उन्होंने अपनी बुद्धि से पूर्व के कई देशों से मित्रता करके आजाद हिंद फौज बनाई

लॉर्ड लिनलिथगो के समय मार्च 1940 में लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान को मोहम्मद अली जिन्ना ने प्रथक देश बनाने की मांग की । जिसे पाकिस्तान प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है । मुसलमानों के लिए पृथक राष्ट्र का सुझाव सबसे पहले 1930 में इकबाल ने दिया । तथा पाकिस्तान को पाकिस्तान शब्द कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले रहनत अली ने दे दिया । 

अगस्त 1940 में वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो द्वारा अगस्त प्रस्ताव पेश किया गया । जिसमें मुस्लिमों के हितों का उल्लेख किया गया है । तथा यह बताया गया है कि युद्ध के बाद भारत में औपनिवेशिक सरकार की स्थापना की जाएगी । और भारतीयों के लिए ऐसा स्वयं का संविधान तैयार किया जाएगा जिसमें अल्पसंख्यकों की अनुमति के बिना सरकार का कोई भी संवैधानिक परिवर्तन लागू नहीं कर सकेगी । कांग्रेस ने इस प्रस्ताव का विरोध किया । किंतु मुस्लिम लीग के लिए यह प्रस्ताव हथियार साबित हुआ । जिसके बल पर वह अपनी सभी इच्छाएं पूरी करवा सकती थी । 

लॉर्ड लिनलिथगो के समय 1942 मे क्रिप्स मिशन इसलिए भारत आया क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश फौजों की दक्षिण पूर्वी एशिया में हार होने से उन पर जापान का खतरा मंडरा रहा था । इसलिए मित्र देश अमेरिका,रूस और चीन ब्रिटेन को इस संकट से बचने के लिए भारत का समर्थन लेने के लिए कह रहे थे । इसलिए ब्रिटेन के मंत्रिमंडल से स्टेफोर्ड क्रिप्स कुछ ठोस आश्वासन के साथ भारत में आया । और उसने कहा कि ब्रिटिश सरकार युद्धोपरांत भारत को अधिराज्य का दर्जा देकर उसे सुरक्षा देना चाहती है । किंतु भारत ने इन सारे प्रस्तावों को खारिज कर दिया ।  
लॉर्ड लिनलिथगो के समय 8 अगस्त 1942 मे भारत छोड़ो आंदोलन इसलिए शुरु हुआ क्योंकि क्रिप्स मिशन के असफल हो जाने के बाद गांधीजी ने समूचे भारत में भारत छोडो आंदोलन शुरु करने की घोषणा कर दी  । 9 अगस्त 1942 को सुबह गांधीजी सहित कांग्रेस के अधिकांश नेता गिरफ्तार कर लिए गए । गांधीजी को पुना के आगा खां महल में रखा गया । गांधीजी के गिरफ्तार होने से आंदोलन के उग्र रूप धारण कर लिया । पूरे देश मे चारों तरफ गोलियां चली,लाठीचार्ज हुए,हड़ताल रही और सारे देश में गिरफ्तारियां हुई । आखिरकार आक्रोशित जनता हिंसा पर उतर आई । लोगों ने सरकारी संपत्ति पर हमला किया । रेल की पटरियों को तोड़ा । और पुल टेलीफोन तथा चार लाइनों को क्षति पहुंचाई । जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया तथा अरुणा आसफ अली ने भूमिगत रहकर आंदोलन का नेतृत्व किया । ऊषा मेहरा ने कांग्रेस रेडियो का कार्य किया । बालिया और सतारा जैसे कुछ स्थान अंग्रेजी दासता से मुक्त हो गए । मगर सरकारी दमनचक्र की उग्रता अपनी सभी सीमाएं तोड़ गई । वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने हवाई जहाज से बम बरसाने और अंधाधुंध गोलियां चलाने के आदेश दे दिए । जिससे बड़ी संख्या में लोग मारे गए । सरकारी दमनचक्र के कारण यह आंदोलन अधिक समय तक नहीं टिक सका । इस आंदोलन में महात्मा गांधी ने 'करो या मरो' तथा लाल बहादुर शास्त्री 'मरो नहीं मारो' का नारा दिया । 


 1943 मे लॉर्ड वेवेल
   भारत के नए वायसराय बने । 1944 में इंग्लैंड में चुनाव हुए थे जिसमें इंग्लैंड की सरकार बदल गई थी । इस सरकार के नए प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली बने जो भारत सरकार के पक्ष मे थे । और उन्हे भारतीयों की गरीब स्थिति के नाम पर इग्लैण्ड मे बहुमत मिला था । इग्लैंड के अंग्रेज नागरिक चुनाव के समय ऐटली के भाषण से प्रभावित हुए और यह चाहने लगे कि भारतीयों  की आर्थिक तंगी की वजह अगर इग्लैंड सरकार है तो ऐसी सरकार को हम दुबारा नहीं आने देंगे और नई सरकार चुनेंगे जो भारतीयों की गरीबी को दूर कर सके और उन्हें यह आश्वासन दिला सके कि इग्लैंड भारतीयों की निर्धन स्थिति का जिम्मेदार नहीं है । प्रधानमंत्री बनते ही ऐटली ने कहा कि ब्रिटिश सरकार भारत के पूर्ण स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता प्रदान इसलिए कर रही है क्योंकि यह उसका अधिकार है कि वह ब्रिटिश शाशन के साथ रहना चाहते है या नहीं । हम भारतीयों के हिन्दू तथा मुसलमानो के अधिकारों के प्रति भलीभांति जागरूक हैं । और चाहते हैं कि भारत के हिन्दू तथा मुसलमान बिना किसी भय के स्वतंत्रता पूर्वक रहें । परंतु हम यह भी सहन नहीं करेंगे कि भारतवासी अपनी गरीबी और आर्थिक तंगी के लिए इग्लैंड को उत्तरदायी ठहराए । और उन्होंने जून 1948 तक भारत को स्वतंत्र कराने की घोषणा कर दी । इसके बाद 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो जाने के बाद एटली ने भारत के वायसराय वेवेल से हिंदू और मुस्लिम लोगों को एक साथ सम्मिलित करके भारत का संविधान स्वयं बनाने की जिम्मेदारी देने को कहा । भारत के वायसराय वेवेल ने इस काम को करने के लिए शिमला में सभा बुलाई । जिसे वेवेल की शिमला वार्ता योजना कहते हैं । इस सभा में जिन्ना ने यह मांग रखी के मुस्लिम सदस्यों को संविधान में चुनने का अधिकार सिर्फ मुस्लिम लीग पार्टी को है । जिन्ना की इस मांग से कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार दोनों सहमत नहीं थे । इसलिए वेवेल की शिमला वार्ता योजना विफल हो गई । इसके बाद एटली ने 1946 मे भारतीय संविधान सभा के लिए कैबिनेट मिशन नामक तीन सदस्यों का एक संगठन बनाकर इग्लैंड से भारत में भेजा । जिसमे भारत मंत्री लोर्ड पैथिक लोरेंस , व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष सर स्टैफोर्ट क्रिप्स और नोसैना मंत्री सर ए.बी. एलेक्जेंडर थे ।   24 मार्च 1946 को इस मिशन ने दिल्ली पहुंचकर संविधान सभा के लोगों को चुनकर उनसे बातचीत की । किन्तु इस मिशन में मुस्लिम लीग पार्टी ने अस्वीकृति दी । तथा इसका विरोध इसलिए किया क्योंकि मुस्लिम लीग पार्टी के बडे नेता मुहम्मद अली जिन्ना को डर था कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत हिंदू राष्ट्र में बदल जाएगा । और मुस्लिम समुदाय के लोगों के अधिकारों का हनन किया जाएगा । इसलिए उन्होंने पाकिस्तान को स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के उद्देश्य से कैबिनेट मिशन का विरोध किया । इसके साथ ही भारत के हिन्दू तथा मुसलमानो मे कई स्थानों पर भयानक संप्रदाय दंगे हुए । इन दंगों ने भारत के कई स्थानों को रक्तपात हत्या और भय की बाढ़ में डुबो दिया । हजारों लोगों के कत्ल कर दिए गए । और कई हजार लोग घायल हुए । मुस्लिम लीग पार्टी ने 16 अगस्त का दिन भारतीय इतिहास का काला दिन कहा । वेवेल और कैबिनेट मिशन नामक संगठन ने मुसलमानों को काफी समझाने का प्रयास किया कि वे अलग न हो । गांधी जी और कांग्रेस के कई नेताओ ने भी मुस्लिम नेता मुहम्मद अली जिन्ना को अलग नही होने के लिए काफी निवेदन किया लेकिन वो नहीं मान रहा था । उसका तो एक ही कहना था मुसलमानों के लिए प्रथक राष्ट्र का विभाजन होगा । अब कैबीनेट मिसन ने जुलाई 1946 मे कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों पार्टियों के बीच उनकी ही सहमति और एकजुटता के लिए चुनाव कराए । चुनाव होने से पहले मुस्लिम लीग पार्टी भारत के साथ रहने के लिए तैयार हो गई  । जिसमे सम्पूर्ण भारत मे संविधान सभा के लिए 389 सीटों पर चुनाव हुए थे ।  211 सीटो पर कांग्रेस तथा 73 सीटों पर मुस्लिम लीग को सफलता मिली । इस चुनाव को मुस्लिम लीग पार्टी ने बाद मे अस्वीकार करके 16 अगस्त को प्रतक्ष कार्यवाही दिवस मनाया । उधर एटली इस बात को लेकर चिंतित थे कि भारत के बहुसंख्यक लोग जब तक राजी नहीं हो जाते तब तक उन पर संविधान का भार नहीं थोपा जा सकता । हिन्दू और मुसलमानों के बीच हिंसा बढती जा रही थी और खुलेआम मारकाट तथा कत्ल हो रहे थे ऐसी स्थिति मे ब्रिटिश सरकार ने लोर्ड माउन्टबेटन को नया वायसराय बनाकर भारत मे भेजा । फरवरी 1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली ने भारत को जल्द से जल्द स्वतंत्र कराने का पक्का वादा कर दिया । मार्च 1947 में लॉर्ड माऊंटबेटन 

को भारत का नया वायसराय बनाया गया । माउन्टबेटन भारत मे आकर कांग्रेस और लीग के नेताओं से मिलकर एक साथ रहने के लिए काफी समझाते है । लेकिन मुस्लिम लीग पार्टी के नेता मोहम्मद अली जिन्ना भारत के साथ मिलकर रहने से स्पष्ट मना कर देते है । तो माउन्टबेटन पाकिस्तान की परिस्थिति को समझकर जून 1947 में भारत तथा पाकिस्तान विभाजन संबंधी प्रस्ताव ब्रिटिश संसद को सौंपते है । और यह कहते कि हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी दंगे शांत करने का एक ही हल है और वह है भारत तथा पाकिस्तान के रूप मे हिन्दुस्तान का विभाजन होना । इसके बाद 2 जुलाई 1947 में यह प्रस्ताव पारित हो जाता है । इस योजना को लॉर्ड माउंटबेटन योजना कहते हैं । इसी योजना में यह निर्णय लिया गया कि 14  अगस्त को पाकिस्तान को और 15 अगस्त 1947 को भारत को उनकी सत्ता का हस्तांतरण सौंप दिया जाएगा । इस प्रकार हमारा भारत देश दो टुकडो मे बंट जाता है । और भारतीय भू-भाग से पाकिस्तान बन जाता है । अब एटली ने माउन्टबेटन के जरिए घोषणा करवाई कि भारत की सभी रियासते अपनी अपनी इच्छा अनुसार 15 अगस्त 1947 से पहले भारत तथा पाकिस्तान मे विलेय हो जाऐं भारत मे रियासतों के विलय की जिम्मेदारी सरदार बल्लव भाई पटेल ने ली । उस समय  बल्लभ भाई पटेल ने 362 रियासत भारत मे विलेय करवायीं थी इसलिए लोर्ड माउन्टबेटन ने उनकी प्रशंशा की । किंतु जूनागढ हैदराबाद और जम्मू कश्मीर ऐसी रियासत थी जिन्होने भारत मे विलेय होने से स्पष्ट मना कर दिया । जूनागढ का राजा मुस्लिम था किन्तु वहाँ की जनता हिन्दू थी जो भारत मे विलेय होना चाहती थी । परन्तु शाशक ने पाकिस्तान के साथ मिलने की घोषणा कर दी । ऐसी स्थिति मे जनता ने विद्रोह कर दिया । शाशक को पाकिस्तान भागना पडा । शाशक के भाग जाने के बाद जूनागढ के दीवान शाहनवाज भुट्टो ने जनमत करवाया जो भारत के पक्ष मे रहा और जूनागढ भारत मे विलेय हो गया । हैदराबाद भारत की सबसे बडी रियासत थी  पाकिस्तान के कहने पर निजाम ने अपनी रियासत को स्वतंत्र रखा । जिसे सैन्य बल पर भारत मे मिलाया गया । जम्मू कश्मीर को भी बाद मे विलेय किया गया । सन 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान स्वतंत्र हो गया और 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया । भारत को स्वतंत्र हो जाने के बाद भारत  के वायसराय लोर्ड माउन्टवेटन को स्वतंत्र भारत का पहला गवर्नर जनरल बनाया गया । लोर्ड माउन्टवेटन 21 जून 1948 को 
                 चक्रवती राज गोपालाचारी
           
को अपना यह पद सोंपकर इंग्लैंड के लिए चला गया । इस प्रकार चक्रवती राज गोपालाचारी स्वतंत्र भारत के दूसरे और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बने । ये गांधी जी के समधी थे जो 26 जनवरी 1950 तक गवर्नर जनरल रहे । इसके बाद भारतीय संविधान लागू हो गया । भारतीय राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले राजाजी को 1954 मे प्रथम भारत रत्न प्रदान किया गया । 

Monday, August 21, 2017

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ 28 दिसंबर सन् 1885 को मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी ए. ओ. ह्यूम

ने की । तथा  व्योमेश चंद्र बनर्जी

इसमें प्रथम अध्यक्ष नियुक्त किये गये  । दादाभाई नौरोजी

ने इंडियन नेशनल यूनियन पार्टी को कांग्रेस पार्टी नाम दिया । कांग्रेस में सबसे पहले स्वराज का लक्ष्य बाल गंगाधर तिलक ने अपनाया था ।
            1907 में सूरत अधिवेशन में सभापति के लिए रासबिहारी बोस को चुना गया । जबकि गरम दल वाले बाल गंगाधर तिलक को सभापति बनाना चाहते थे । अतः कांग्रेसी नेताओं में आपस में वैचारिक मतभेद बढ़ने लगा । ऐसी स्थिति में मोतीलाल नेहरू

ने कांग्रेस से उग्रवादी गरम दल के नेताओं को प्रथक कर दिया । जो कांग्रेस में पहली फूट साबित हुई । कांग्रेस में फूट हो जाने से कांग्रेस दो गुटों में बट गई । पहले गुट को उग्रवादी या गरम दल नाम दिया गया । वहीं दूसरा गुट उदारवादी या  नरम दल के नाम से मशहूर हुआ । बाद मै प्रथम विश्व युद्ध छिडने के बाद 1916 में लखनऊ समझोते में दोनो दल फिर से एक हो गए । गरम दल के प्रमुख नेता लाला लालपति राय , बाल गंगाधर तिलक और विपिन चन्द्र पाल थे । जिन्है 'लाल-बाल-पाल'

के नाम से जाना जाता है । जबकि नरम दल के प्रमुख नेता दादा भाई नौरोजी,

गोपाल क्रष्ण गोखले,

फिरोजशाह मेहता

और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी

थे । जिन्हें उदारवादी कांग्रेसी नेताओ के नाम से जाना जाता है । नरम दल वाले नेता मोतीलाल नेहरु जैसे थे । जो अंग्रेजो के चापलूस थे । वह हमेशा यह सोचते थे कि अंग्रेजो के साथ मिलकर भारत में गठबंधन सरकार बने । लेकिन गरम दल वाले नेता बाल गंगाधर तिलक जैसे महान क्रांतिकारी थे । वे अंग्रेजों के कट्टर विरोधी थे । वह पूर्ण स्वशासन की मांग कर रहे थे । उनका मानना था कि गठबंधन सरकार से तो गुलामी कई गुना अच्छी है । उग्रवादी गरम दल के नेता वंदे मातरम् गाते थे । वंदेमातरम से अंग्रेजो को चिढ़ होती थी । क्योंकि यह गीत भारतीयों के हृदय में देशभक्ति की भावना को भरता था । इसीलिए गरम दल के नेताओं को अंग्रेजो कठोर यातनाएं देने लगे । लाला लाजपत राय को 1 वर्ष के लिए और बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष का निर्वासित जीवन व्यतीत करने के लिए बर्मा भेजा गया । जबकि नरम दल वाले नेता अंग्रेजों को प्रसन्न रखने और गरम दल वाले नेताओं को चिढ़ाने के लिए जन गण मन गाते थे । अंग्रेजों ने देखा कि जन गण मन की अपेक्षा वन्दे मातरम के समर्थक हजारों गुना ज्यादा हो चुके हैं । तो उन्होंने नरम दल वालों के साथ मिलकर एक हवा उड़ाई । कि मुसलमानों को वंदे मातरम नहीं गाना चाहिए क्योंकि इसमे मूर्तिपूजा है । जबकि मुसलमान मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी हैं । यह बीज अंग्रेज़ो के कहने पर नेहरु जी ने बोया था । तो दोनों दलों में विवाद होने लगा । और दोनों दल इस बात के निर्णय के लिए गांधीजी के पास गए । गांधी जी खुद जन गण मन के पक्ष में नहीं थे । तो उन्होंने एक नया गीत दिया । विजयी विश्व तिरंगा प्यारा । लेकिन यह गीत भी नेहरु जी को नहीं जमा । बाद मे गांधी जी की मृत्यु के बाद जन गण मन को राष्ट्रगान बनाया गया । किंतु वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत इस डर से बनाया गया कि कहीं विद्रोह की स्थिति पैदा ना हो जाए । लेकिन सभा और प्रमुख सरकारी उत्सव में राष्ट्रगान को गाना अनिवार्य कर दिया गया । वहीं विधालयों में गांधी जी का पसंद किया हुआ विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झंडा ऊंचा रहे हमारा । गीत गाया जाने लगा ।

1786 में कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में हुआ था । जिसमें दादाभाई नौरोजी अध्यक्ष चुने गए । दादाभाई नौरोजी प्रथम फारसी अध्यक्ष थे । 1887 है कांग्रेस का अधिवेशन मद्रास में हुआ था । जिसमें बदरुद्दीन तैयबजी जी को अध्यक्ष चुने गए । जो प्रथम मुस्लिम अध्यक्ष थे । 1888 में कांग्रेस का अधिवेशन इलाहाबाद में हुआ था । जिसमें जॉर्ज यूले

को अध्यक्ष चुना गया । जो प्रथम यूरोपीय अध्यक्ष थे । 1890 में कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में हुआ था । जिसमें फिरोजशाह मेहता अध्यक्ष चुने गए । 1896 में कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ था । जिसमें रहीमतुल्ला सयानी

अध्यक्ष चुने गए । इस अधिवेशन में सर्वप्रथम राष्ट्रीय गीत कब गाया गया । 1895 में पुणे और 1902 में अहमदावाद अधिवेशन की अध्यक्षता सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने की थी । 1992 के बनारस अधिवेशन की अध्यक्षता गोपाल कृष्ण गोखले ने की थी । इस अधिवेशन में सर्वप्रथम स्वराज्य प्राप्ति हेतु संकल्प लिया गया । 1906 मे सूरत अधिवेशन की अध्यक्षता रासबिहारी बोस ने की थी । इस अधिवेशन में सर्वप्रथम कांग्रेस में फूट हुई थी । 1909 मे लाहौर अधिवेशन में मदन मोहन मालवीय

अध्यक्ष चुने गए । इसे कांग्रेस का रजत जयंती अधिवेशन कहते हैं । 1910 में इलाहाबाद अधिवेशन की अध्यक्षता विलियम वैडरबर्न

ने की थी । यह दो बार अध्यक्षता करने वाला यूरोपीय नागरिक था । इसने 1889 में मुंबई अधिवेशन मे भी अध्यक्षता की थी ।1911 में कोलकाता अधिवेशन की अध्यक्षता बिशन नारायण धर

ने की थी । इस अधिवेशन में सर्वप्रथम राष्ट्रीय गान का गायन किया गया । 1914 में मद्रास अधिवेशन की अध्यक्षता भूपेंद्रनाथ बसु

ने की थी । इस अधिवेशन में पहली बार गवर्नर जनरल की उपस्थिति हुई ।


Saturday, August 19, 2017

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

सर्वप्रथम भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की क्रांति को वीर सावरकर ने भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा । इस आंदोलन का मुख्य कारण चर्बी वाला कारतूस था । सन 1857 में सैनिकों को एनफील्ड नामक राइफल दी गई थी । जिसमें भरे जाने वाले कारतूस गाय तथा सूअर की चर्बी से भारत मे बनते थे । जिन्हें बन्दूक मे भरने से पहले जिनके ऊपर लगे कागज के खोल को दांत से काटकर खोलना पडता था । सैनिकों को कारतूसों मे चर्बी होने की बात 1857 मे पता चली । तो सैनिकों ने अंग्रेजों से कहा कि मुसलमान लोग सूअर को छूना तो दूर वे उसका नाम भी नहीं लेते है वे सूअर को खिंजीर कहते है उनके धर्म के अनुसार सूअर कहने से उनकी जवान गंदी हो जाती है सूअर मनुष्यों की विष्टा खाने वाला शूद्र जाति के गंदे लोगों द्वारा पाला जाने वाला  जानवर है । इससे हिन्दु और मुस्लिम दोनों ही घ्रणा करते हैं । और आप लोग इनकी चर्बी का प्रयोग कारतूसों मे कर रहे है जिसे हम मुंह से काटकर खोलते है और गाय को हिंदू लोग लक्ष्मी का अवतार मानकर उनकी पूजा करते हैं जिसका कत्ल करके कारतूस बनाकर गौ माता का ही अपितु ईश्वर का अपमान हो रहा है । किन्तु अंग्रेज़ों ने भारतीय सैनिकों को फटकार लगा दी । जिससे भारतीय सैनिक बौखला गए । और विद्रोह के लिए तैयार हो गए । इसके अलावा और कई कारण इस आंदोलन को भडकाने के लिए उत्तरदाई रहे हैं । राजनीतिक कारणों में डलहौजी की गोद निषेध प्रथा थी । जिसके द्वारा सतारा,संबलपुर,बघात,जेतपुरा,उदयपुर,नागपुर और झांसी आदि शहरों को जबरदस्ती छीनकर अंग्रेजी राज्य में मिलाया गया था । धार्मिक कारणों में इस आंदोलन को भड़काने का मुख्य कारण ईसाई धर्म का भारत में विशेष प्रचार करना था । अंग्रेजों मानते थे कि भारत पर हमारे अधिकार का मुख्य उद्देश्य संपूर्ण भारत को ईसाई बनानार ईसाई धर्म की पताका को यूरोप से एशिया तक फहराऐं । अंग्रेज़ कहते थे कि समस्त ब्रिटिश नागरिकों का यह कर्तभ्य है कि वे भारत के एक-एक नागरिक को ईसाई बनाने के महान काम में अपनी पूरी ताकत लगाऐं । अंग्रेजों ने भारतीय लोगों को गुमराह करने का ऐसा जाल बिछाया कि हजारों लोग इस जाल में फंस गए । अंग्रेजों ने हिंन्दुस्तान वासियों को प्रलोभन दिया कि जो हिन्दुस्तानी नागरिक  ईसाई धर्म स्वीकार करेगा उसे सरकारी नौकरी मिलेगी और साथ साथ उसकी उच्च पदों पर जल्दी जल्दी तरक्की होगी । इसके अलावा इस विद्रोह के फैलने के कुछ सामाजिक कारण भी हैं । अंग्रेजों को अपनी स्वेत चमड़ी पर गर्व था वे भारतीयों को काली चमड़ी कहकर उनका  उपहास करते थे । विलियम बैटिंग ने सती प्रथा और कन्या हत्या को बंद करा कर और डलहौजी ने विधवा पुनर्विवाह को मान्यता देकर रूढ़िवादी भारतीयों में असंतोष भर दिया । इसके अलावा डलहौजी ने पंडितो और गरीब किसानो से माफी तथा दान में मिली हुई जमीन को छीन लिया जिससे भारतीय जमींदार दरिद्र वह कंगाल हो गए । उनके मन में अंग्रेजो के प्रति असंतोष इसलिए व्याप्त हो गया क्योंकि वे स्थाई बंदोबस्त, रैयतवाड़ी व्यवस्था और मारवाड़ी व्यवस्था से परेशान होकर उनकी स्थिति दयनीय हो गई थी । अतः किसानों की आर्थिक तंगी का यह कारण भी विद्रोह का कारण बना । सन 1806 में लॉर्ड विलियम बैटिंग मद्रास में गवर्नर था इसने भारतीय सिपाहियों को मस्तक पर तिलक लगाने पगड़ी, कुंडल , गले मे माला और जनेऊ पहनने पर पाबंदी लगा दी थी । सन 1856 में सभी भारतीय सैनिकों ने समुद्र पार जाने से मना कर दिया जिससे वर्मा के रेजीडेंसी भंग हो गई । किंन्तु 1857 में लॉर्ड विलियम बैटिंग ने सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम बनाया । जिसके द्वारा सरकार जहां चाहेगी सैनिकों से काम कराएगी । यह कानून बनाया गया । जिससे भारतीय सैनिक असंतुष्ट हो गए । और विद्रोह करने के लिए तैयार हो गए । जो 1857 की क्रांति का एक कारण बना । 10 मई सन 1857 को मेरठ के सिपाहियों की बगावत से भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ । दूसरे दिन मुगल बादसाह के सेनापति बख्त खान ने दिल्ली के सिपाहियों से मिलकर दिल्ली पर अपना कब्जा करके मुगल बादशाह  बहादुर शाह जफर को हिंदुस्तान का सुल्तान घोषित कर दिया । और संपूर्ण दिल्ली पर अपना कब्जा कर लिया । भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ पनप रहा यह असंतोष स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भड़क उठा । यह आंदोलन दावानल की तरह शीघ्र ही संपूर्ण देश में तितर-बितर हो गया । यह ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे बड़ा तथा पहला आंदोलन था । जो ब्रिटिश सरकार को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए संपूर्ण देश में एक समान जागृत हुआ । दिल्ली के बाद इस आंदोलन की चिंगारी संपूर्ण देश में दावानल की तरह भडकने लगी । अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों से हथियार छीन कर उन्हें बंदी बना लिया । इस आंन्दोलन में भारी तादाद में लोगों ने भाग लिया । बिहार में इस आंदोलन का नेतृत्व कुंवर सिंह ने किया । कानपुर में आंदोलनकारियों ने तात्या टोपे की मदद से नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया । और अजीमुल्ला उसका सलाहकार बना । झांसी में रानी लक्ष्मीबाई को शासक घोषित किया गया । लखनऊ में वाजिस अली के पुत्र बिरजिस कादिर को अवध का नवाब बनाया गया । और अपनी मां हजरत महल ने उसकी ओर से मौलावी अहमदुल्लाह के नेतृत्व में लखनऊ की रेजीडेंसी को घेर लिया । बरेली मै आंन्दोलन खान बहादुर ने किया । इलाहाबाद में लियाकत अली सेना लेकर अंग्रेजों पर टूट पड़ा । फैजाबाद में अहमदुल्लाह ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया । इस आंदोलन का प्रतीक चिन्ह कमल और चपाती था । यह आंदोलन लॉर्ड कैनिंग के समय होने वाला एक भयंकर आंन्दोलन था ।

Friday, August 18, 2017

क्रान्तिकारी

मंगल पांडे

 मंगल पाण्डे मंगल पांडे 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत थे । वे बैकपुर छावनी में बंगाल नेटिव इन्फेण्टी की 34वीं रेजीमेंट में 1446 नं. के सिपाही थे । इन्होंने 29 मार्च सन 1857 को चर्बी वाले कारतूसों ( सन् 1853 में सैनिकों को एनाफील्ड नामक बंदूक दी गई थी । जिसमें भरे जाने वाले कारतूस गाय तथा सूअर की चर्बी के बने होते थे । इन्हें बंदूक मैं भरने से पहले जिसके ऊपर लगे कागज को दांत से काट कर खोलना पड़ता था । जिससे हिंदू और मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती थी । यही बात 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का तात्कालीन कारण बनी । ) को मुंह से काटने से स्पष्ट मना कर दिया । तो गुस्से में आकर कोर्ट मार्शल (बटालियन में एक अंग्रेजी ट्रिब्यूनल होता था) ने मंगल पांडे के हथियार छीनने तथा वर्दी उतारने का फौजी हुक्म दिया । किंतु मंगल पांण्डे ने इसे मानने से इन्कार कर दिया । और उन्होंने तुरंत ही 'जंग-ए-आजादी' नामक मित्रों के संगठन से गूंजते हुए स्वर में कहा -"बंधुओं उठो ! तुम अब भी किस चिंता में निमग्न हो । उठो ! तुम्हें अपने पावन धर्म की सौगंध ! चलो स्वतंत्र लक्ष्मी की पावन अर्चना हेतु इन अत्याचारी शत्रुओं पर तत्काल प्रहार करो । किंतु शुरू है कोर्ट मार्शल के डर से किसी ने भी उनका साथ नहीं दिया । एक अंग्रेज अफसर मेजर ह्यूसन इस कार्य को करने के लिए आगे बढ़ा । तो मंगल पांडे ने अपनी ही राइफल से उस अंग्रेज अधिकारी को मौत की नींद सुला दिया । ह्यूशन को धराशाई हुआ देख लेफ्टिनेंट वाव ने घोड़े पर सवार होकर मंगल पांडे को घेराना चाहा । किंतु मंगल पांडे की बंदूक ने दूसरी बार मुंह खोला और देखते ही देखते वोव घोड़े से गिरकर भूमि पर तड़पता दिखाई दिया । किंतु फिर भी वोव ने अपनी पिस्तौल से गोली चला दी । जो मंगल पांडे की बगल से निकल गई । अब वोव ने खिसयाकर अपनी तलवार खींच कर मंगल पांडे पर टूट पड़ा । लेकिन मंगल पांडे भी कच्चे खिलाड़ी नहीं थे । वोव ने मंगल पांडे पर प्रहार करने के लिए अपनी तलवार तानी ही थी कि तब तक मंगल पांडे ने कंदा समेत वोव का पूरा हाथ जड़ से अलग कर दिया । एक बलि मंगल पांडे की बंदूक ले चुकी थी । और दूसरी उसकी की तलवार । वोव को गिरा हुआ देखकर एक और अंग्रेज मंगल पांडे की ओर बडा ही था कि मंगल पांडे के साथी भारतीय सैनिकों ने अपनी बंदूक उल्टी कर के डंडे की भांति उसकी खोपड़ी पर दे मारी जिससे उसकी खोपड़ी खुल गई । अपने आदमियों को गिरता हुआ देख कर्नल व्हीलर मंगल पांडे की ओर बडा कि सभी भारतीय सैनिक गर्जना कर उठे -"खबरदार जो कोई आगे बढ़ा । आज हम तुम्हारे अपवित्र हाथों से ब्राह्मण के पवित्र शरीर को छूने नहीं देंगे । कर्नल व्हीलर जैसा आया था वैसा ही लौट गया । उसने तुरंत ही इस कांड की सूचना जनरल को दी मंगल पांडे ने शत्रुओं के रक्त से भारत माता की प्यास बुझा कर अपना कर्तव्य पूरा कर दिया । अब उसने स्वयं की रक्तांजली देना उचित समझा । उसने अपनी ही बंदूक से अपने ही हाथों से अपनी बंदूक अपनी छाती में अड़ा कर गोली छोड़ दी । वह गोली छाती में सीधी न जाकर पसली की तरफ फिसल गई । जिससे मंगल पांडे घायल हो गए । अंग्रेजी सेना ने उन्हें बंदी बना लिया । उन पर मुकद्दमा चलाया गया । अंग्रेजों ने काफी प्रयास किया कि मंगल पाण्डे उन लोगों के नाम बताए जो इस षड्यंत्र में सम्मिलित थे । परंतु मंगल पांडे ने अपना मुंह अपने साथियों को फसाने के लिए बिल्कुल नहीं खोला । 8 अप्रैल 1857 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया । उन्होंने 29 मार्च सन् 1857 को हियरसे को गोली मारी थी और अफसर वाग की हत्या की थी ।


               झांसी की रानी लक्षामीबाई 

 रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वानिता थी । इनका जन्म 1835 को वाराणसी उत्तर प्रदेश में हुआ था । इनका बचपन का नाम मणिकणिका था परंतु प्यार से इन्हें मनु कहते थे । इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था । जो एक साधारण ब्राह्मण थे । तथा अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे । जब इनकी उम्र 4 वर्ष थी तभी अचानक इनकी माता का देहांत हो गया । तो यह अपने पिता के साथ बिठूर में आ गई थी । चूंकि घर में मनु की देख रेख के लिए कोई नहीं था । इसलिए इनके पिता इन्हें अपने साथ बाजीराव द्वितीय के दरबार में लिए जाने लगे । जहां पर इस सुन्दर एवं सुशील कन्या ने सबका मन मोह लिया । तो बाजीराव द्वतीय ने इसका नाम 'छबीली' रख दिया । और भी प्यार से इसे 'छबीली' बुलाते थे । बाजीराव द्वितीय के बच्चों को तलवारबाजी,धनुर्विद्या और घुडसवारी सिखाने के लिए शिक्षक आते थे । तो मनु भी उन बच्चों के साथ सीखती थी । 7 वर्ष की उम्र में ही मनु तलवारबाजी,धनुर्विद्या तथा घोड़े सवारी में निपुण हो गई । अब 1842 में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ । अब यह झांसी की रानी बन गई । यहां इसका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया । 1851 में इन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ । किन्तु दुर्भाग्यवस 4 माह बाद एक बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गई । 1253 में झांसी के राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया । तो वहां के दरबारियों ने उन्हें दत्तक पुत्र गोद लेने की सलाह दी ।तो इन्होंने अपने ही परिवार के एक 5 वर्ष के बालक को गोद ले लिया । इस बालक का नाम है इन्होंने दामोदर राव रखा । पुत्र गोद लेने के दूसरे दिन बाद ही झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई । उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था । और भारत का गवर्नर लॉर्ड डलहौजी था । जिसने भारतीय राजाओं को कंपनी के अधीन करने के लिए विलय या हड़प नीति अपनाई । इसका उद्देश्य भारतीय राजाओं में फूट डालकर शासन करना था । इसलिए इसने सबसे पहले दत्तक पुत्र गोद लेने की प्रथा पर रोक लगाई । और यह नियम बनाया कि जो राजा बिना पुत्र के मरेगा उसका राज्य अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाएगा । डलहौजी ने रानी के दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी नहीं माना । और रानी को एक पत्र लिखकर कहा कि राजा के कोई पुत्र नहीं है इसीलिए झांसी पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा । यह सुनकर रानी क्रोध से भडक उठी और उसने की घोषणा कर दी की अपनी झांसी नहीं दूंगी । यह सुरकर अंग्रेजी तिलमिला उठे और उन्होंने झांसी पर आक्रमण कर दिया । रानी ने भी किले की प्राचीर पर तोपें रखवाकर प्रशिद्ध तोपची गौस खां तथा खुदाबक्स को तैयार बैठा दिया था । यह देखकर जनरल ह्यूरोज चकित रह गया । उसने चारों और से किले को घेर कर आक्रमण शुरू कर दिया । अंग्रेज 8 दिनों तक इस किले पर तोप के गोले बरसाते रहे । परंतु किला ना जीत सके । ह्यूरोज ने देखा कि सैंन्य बल पर किला जीतना संभव नहीं है तो उसने कूटनीति का प्रयोग करके झांसी के एक सरदार दूल्हा सिंह को अपनी तरफ मिलाया । उसने तुरंत ही किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया । फिरंगी सेना के लिए मैं घुस गई । और उन्होंने लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया । यह देखकर रानी ने अपने पुत्र को पीठ पर बांधकर दाहिने हाथ में तलवार लेकर चंडी का रूप धारण कर लिया । और शस्त्रुओं का नरसंघार करने लगी । झांसी के वीर सैनिक भी हर-हर महादेव के जयकारे लगाते हुए शस्त्रुओं पर टूट पड़े । किन्तु अंग्रेजों की सेना ने सामने झांसी की सेना टिक न सकी । और अंग्रेजो ने रानी को चारों ओर से घेर लिया । लेकिन नन्हे दामोदर राव की वजह से रानी को अंग्रेजो के बीच में से निकलने में सफलता मिल गई। अब रानी झांसी छोड़कर कालपी की ओर बढ़ी । कालपी में रानी की मुलाकात तात्या टोपे से हुई । तात्या टोपे भी अंग्रेजों का कट्टर विरोधी था । अब दोनों की संयुक्त सेना ने सिंधिया की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोल दिया । सिंधिया अंग्रेजों का वफादार मित्र था । वह अपनी राजधानी को छोड़कर आगरा की ओर भाग गया । अब जनरल स्मिथ अपनी सेना के साथ रानी पर आक्रमण करने पहुंच गया । रानी की सेना ने इसके दांत खट्टे कर दिए । तभी अचानक रानी ने पीछे मुडकर देखा कि जनरल हयूरोज विशाल सैना लेकर रानी पर आक्रमण कसने आ रहा है । अब रानी के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया । क्योंकि उसके सामने एक बहुत बड़ा नाला था । उसका घोड़ा अड़ गया वह नाले को पार नहीं कर सका । तभी पीछे से ह्यूरोज की सेना ने रानी पर वार करना शुरू कर दिया । एक गोरे ने उनके सिर पर ऐसा वार किया कि उनके सिर का दहिना भाग जख्मी हो गया । और एक आंख बाहर निकल आई । उसी समय दूसरे अंग्रेज अफसर ने उनके हृदय पर बार कर दिया । तब भी रानी ने अपनी तलवार से इन दोनों का बद कर डाला । फिर वह भूमि पर गिर पड़ी । पठान सरदार गोस खां अब भी रानी के साथ था । उसका रौद्र रूप देखकर गोरे भाग खड़े हुए । स्वामी भक्त रामराव देशमुख और गोस खां ने रानी के रक्तरंजिस शरीर को पास में ही स्थित बाबा गंगादास वैद की कुटिया में पहुंचाया । रानी ने व्यथा से व्याकुल होकर वहां जल मांगा तो गंगादास ने उन्हें जल पिलाया । अब भी रानी का मुख दिव्य कांति से चमक रहा था । उनके मुख पर वेदना की तो झलक भी नहीं दिख रही थी । उन्होंने एक बार अपनी नेत्रों से अपने पुत्र को देखा । और फिर भी तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बंद हो गए । उसी कुटिया में ही इनकी चिता लगाई गई थी । जिसे उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी थी । 17 जून सन् 1857 का दिन में ग्वालियर में इस वीरांगना का काल बनकर आया । 


                            तात्या टोपे

स्वतंत्रता संग्राम के वीरों में तात्या टोपे का लक्ष्मीबाई के बाद दूसरा स्थान है l इसका पूरा नाम रामचंद्र पांडुरंग येवलेकर था । तात्या टोपे बहुत बुद्धिमान वह विश्व प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे । उन्होंने गोरिल्ला युद्ध प्रणाली से अंग्रेजों से युद्ध किया । और कई स्थानों पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए । यह एक मात्र ऐसा योद्धा था । जिसने चारों दिशाओं से अंग्रेजों को युद्ध मे पराजित करके उनके दांत खट्टे किए थे । नरवर  के राजा मानसिंह ने इसके साथ धोखा करके इसे  औरान (गुना )के जंगलों में अंग्रेजों को पकड़वा दिया । क्योंकि यहां पर इस समय यह विश्राम कर रहा था । 18 अप्रैल 1858 के दिन  तात्या टोपे को शिवपुरी में फांसी दे दी गई । लेकिन सूत्रों के अनुसार फांसी पर लटकाया जाने वाला दूसरा व्यक्ति था । असली तात्या टोपे तो स्वतंत्रता संग्राम के कई वर्षों बाद तक जीवित रहा था । ऐसा माना जाता है कि तात्या टोपे नारायणस्वामी बनकर गोकुलपुरा आगरा में स्थित सोमेश्वर नाथ मंदिर में पुजारी बन कर रहा था । पेशवा बाजीराव द्वितीय ने इनकी चतुराई से प्रभावित होकर इसे 9 हीरों से जड़ी एक टोपी मैंट की । तो दरबार में उपस्थित सभी लोगों ने उनकी तात्या टोपे के नाम से जय जय कारे लगाई । उसी दिन से इनका नाम तात्या टोपे पड गया । 


                          नाना साहब

नाना साहिब भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे । जिनसे अंग्रेजो ने 1818 में पेशवा पद छीनकर 8 लाख रुपए वार्षिक पेंशन पर बिठूर भेज कर वहां की दीवानी के अधिकार दे दिए थे । नाना साहिब के बचपन का नाम धुंधूपंत तथा गोविंद घोडोयंत था । डलहौजी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद नाना साहेब को पैंशन एवं उपाधि देने से वंचित कर दिया । नाना साहब ने इस अन्याय की फरियाद को अजीम उल्ला खां के माध्यम से इंग्लैंड की सरकार तक पहुंचाया । लेकिन कोई भी हल नहीं निकला । अब नाना साहिब ने 4 जून सन 1857 को तात्या टोपे के नेतृत्व में कानपुर पर हमला बोल दिया । नाना साहिब के सिपाहियों ने यहां कई फिरंगियों को युद्ध में मार कर उनके शवों को सेंट मेमोरियल वेल नामक कुएं में फेंक दिया । और कानपुर पर अपना अधिकार करके केशवा बन गए । किंतु बाद में अंग्रेजों ने इन्हें अपदस्थ कर दिया । नाना साहब का मुख्य सलाहकार अजीम उल्ला तथा सेनापती तात्या टोपे था । तात्या टोपे तथा मनु इनके बचपन के मित्र भी थे । उन्होंने एक योजना बनाकर 31 मई सन 1857 को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की तिथि नियत की थी । 1858 में नेपाल के जंगलों में मलेरिया बुखार के कारण नाना साहिब की मृत्यु हो गई ।

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