मंगल पांडे
झांसी की रानी लक्षामीबाई
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वानिता थी । इनका जन्म 1835 को वाराणसी उत्तर प्रदेश में हुआ था । इनका बचपन का नाम मणिकणिका था परंतु प्यार से इन्हें मनु कहते थे । इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था । जो एक साधारण ब्राह्मण थे । तथा अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे । जब इनकी उम्र 4 वर्ष थी तभी अचानक इनकी माता का देहांत हो गया । तो यह अपने पिता के साथ बिठूर में आ गई थी । चूंकि घर में मनु की देख रेख के लिए कोई नहीं था । इसलिए इनके पिता इन्हें अपने साथ बाजीराव द्वितीय के दरबार में लिए जाने लगे । जहां पर इस सुन्दर एवं सुशील कन्या ने सबका मन मोह लिया । तो बाजीराव द्वतीय ने इसका नाम 'छबीली' रख दिया । और भी प्यार से इसे 'छबीली' बुलाते थे । बाजीराव द्वितीय के बच्चों को तलवारबाजी,धनुर्विद्या और घुडसवारी सिखाने के लिए शिक्षक आते थे । तो मनु भी उन बच्चों के साथ सीखती थी । 7 वर्ष की उम्र में ही मनु तलवारबाजी,धनुर्विद्या तथा घोड़े सवारी में निपुण हो गई । अब 1842 में इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ । अब यह झांसी की रानी बन गई । यहां इसका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया । 1851 में इन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ । किन्तु दुर्भाग्यवस 4 माह बाद एक बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गई । 1253 में झांसी के राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया । तो वहां के दरबारियों ने उन्हें दत्तक पुत्र गोद लेने की सलाह दी ।तो इन्होंने अपने ही परिवार के एक 5 वर्ष के बालक को गोद ले लिया । इस बालक का नाम है इन्होंने दामोदर राव रखा । पुत्र गोद लेने के दूसरे दिन बाद ही झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गई । उस समय भारत में अंग्रेजों का शासन था । और भारत का गवर्नर लॉर्ड डलहौजी था । जिसने भारतीय राजाओं को कंपनी के अधीन करने के लिए विलय या हड़प नीति अपनाई । इसका उद्देश्य भारतीय राजाओं में फूट डालकर शासन करना था । इसलिए इसने सबसे पहले दत्तक पुत्र गोद लेने की प्रथा पर रोक लगाई । और यह नियम बनाया कि जो राजा बिना पुत्र के मरेगा उसका राज्य अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाएगा । डलहौजी ने रानी के दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी नहीं माना । और रानी को एक पत्र लिखकर कहा कि राजा के कोई पुत्र नहीं है इसीलिए झांसी पर अब अंग्रेजों का अधिकार होगा । यह सुनकर रानी क्रोध से भडक उठी और उसने की घोषणा कर दी की अपनी झांसी नहीं दूंगी । यह सुरकर अंग्रेजी तिलमिला उठे और उन्होंने झांसी पर आक्रमण कर दिया । रानी ने भी किले की प्राचीर पर तोपें रखवाकर प्रशिद्ध तोपची गौस खां तथा खुदाबक्स को तैयार बैठा दिया था । यह देखकर जनरल ह्यूरोज चकित रह गया । उसने चारों और से किले को घेर कर आक्रमण शुरू कर दिया । अंग्रेज 8 दिनों तक इस किले पर तोप के गोले बरसाते रहे । परंतु किला ना जीत सके । ह्यूरोज ने देखा कि सैंन्य बल पर किला जीतना संभव नहीं है तो उसने कूटनीति का प्रयोग करके झांसी के एक सरदार दूल्हा सिंह को अपनी तरफ मिलाया । उसने तुरंत ही किले का दक्षिणी द्वार खोल दिया । फिरंगी सेना के लिए मैं घुस गई । और उन्होंने लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया । यह देखकर रानी ने अपने पुत्र को पीठ पर बांधकर दाहिने हाथ में तलवार लेकर चंडी का रूप धारण कर लिया । और शस्त्रुओं का नरसंघार करने लगी । झांसी के वीर सैनिक भी हर-हर महादेव के जयकारे लगाते हुए शस्त्रुओं पर टूट पड़े । किन्तु अंग्रेजों की सेना ने सामने झांसी की सेना टिक न सकी । और अंग्रेजो ने रानी को चारों ओर से घेर लिया । लेकिन नन्हे दामोदर राव की वजह से रानी को अंग्रेजो के बीच में से निकलने में सफलता मिल गई। अब रानी झांसी छोड़कर कालपी की ओर बढ़ी । कालपी में रानी की मुलाकात तात्या टोपे से हुई । तात्या टोपे भी अंग्रेजों का कट्टर विरोधी था । अब दोनों की संयुक्त सेना ने सिंधिया की राजधानी ग्वालियर पर हमला बोल दिया । सिंधिया अंग्रेजों का वफादार मित्र था । वह अपनी राजधानी को छोड़कर आगरा की ओर भाग गया । अब जनरल स्मिथ अपनी सेना के साथ रानी पर आक्रमण करने पहुंच गया । रानी की सेना ने इसके दांत खट्टे कर दिए । तभी अचानक रानी ने पीछे मुडकर देखा कि जनरल हयूरोज विशाल सैना लेकर रानी पर आक्रमण कसने आ रहा है । अब रानी के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया । क्योंकि उसके सामने एक बहुत बड़ा नाला था । उसका घोड़ा अड़ गया वह नाले को पार नहीं कर सका । तभी पीछे से ह्यूरोज की सेना ने रानी पर वार करना शुरू कर दिया । एक गोरे ने उनके सिर पर ऐसा वार किया कि उनके सिर का दहिना भाग जख्मी हो गया । और एक आंख बाहर निकल आई । उसी समय दूसरे अंग्रेज अफसर ने उनके हृदय पर बार कर दिया । तब भी रानी ने अपनी तलवार से इन दोनों का बद कर डाला । फिर वह भूमि पर गिर पड़ी । पठान सरदार गोस खां अब भी रानी के साथ था । उसका रौद्र रूप देखकर गोरे भाग खड़े हुए । स्वामी भक्त रामराव देशमुख और गोस खां ने रानी के रक्तरंजिस शरीर को पास में ही स्थित बाबा गंगादास वैद की कुटिया में पहुंचाया । रानी ने व्यथा से व्याकुल होकर वहां जल मांगा तो गंगादास ने उन्हें जल पिलाया । अब भी रानी का मुख दिव्य कांति से चमक रहा था । उनके मुख पर वेदना की तो झलक भी नहीं दिख रही थी । उन्होंने एक बार अपनी नेत्रों से अपने पुत्र को देखा । और फिर भी तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बंद हो गए । उसी कुटिया में ही इनकी चिता लगाई गई थी । जिसे उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी थी । 17 जून सन् 1857 का दिन में ग्वालियर में इस वीरांगना का काल बनकर आया ।
तात्या टोपे
स्वतंत्रता संग्राम के वीरों में तात्या टोपे का लक्ष्मीबाई के बाद दूसरा स्थान है l इसका पूरा नाम रामचंद्र पांडुरंग येवलेकर था । तात्या टोपे बहुत बुद्धिमान वह विश्व प्रसिद्ध छापामार नेताओं में से एक थे । उन्होंने गोरिल्ला युद्ध प्रणाली से अंग्रेजों से युद्ध किया । और कई स्थानों पर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए । यह एक मात्र ऐसा योद्धा था । जिसने चारों दिशाओं से अंग्रेजों को युद्ध मे पराजित करके उनके दांत खट्टे किए थे । नरवर के राजा मानसिंह ने इसके साथ धोखा करके इसे औरान (गुना )के जंगलों में अंग्रेजों को पकड़वा दिया । क्योंकि यहां पर इस समय यह विश्राम कर रहा था । 18 अप्रैल 1858 के दिन तात्या टोपे को शिवपुरी में फांसी दे दी गई । लेकिन सूत्रों के अनुसार फांसी पर लटकाया जाने वाला दूसरा व्यक्ति था । असली तात्या टोपे तो स्वतंत्रता संग्राम के कई वर्षों बाद तक जीवित रहा था । ऐसा माना जाता है कि तात्या टोपे नारायणस्वामी बनकर गोकुलपुरा आगरा में स्थित सोमेश्वर नाथ मंदिर में पुजारी बन कर रहा था । पेशवा बाजीराव द्वितीय ने इनकी चतुराई से प्रभावित होकर इसे 9 हीरों से जड़ी एक टोपी मैंट की । तो दरबार में उपस्थित सभी लोगों ने उनकी तात्या टोपे के नाम से जय जय कारे लगाई । उसी दिन से इनका नाम तात्या टोपे पड गया ।
नाना साहब
नाना साहिब भूतपूर्व पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे । जिनसे अंग्रेजो ने 1818 में पेशवा पद छीनकर 8 लाख रुपए वार्षिक पेंशन पर बिठूर भेज कर वहां की दीवानी के अधिकार दे दिए थे । नाना साहिब के बचपन का नाम धुंधूपंत तथा गोविंद घोडोयंत था । डलहौजी ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु के बाद नाना साहेब को पैंशन एवं उपाधि देने से वंचित कर दिया । नाना साहब ने इस अन्याय की फरियाद को अजीम उल्ला खां के माध्यम से इंग्लैंड की सरकार तक पहुंचाया । लेकिन कोई भी हल नहीं निकला । अब नाना साहिब ने 4 जून सन 1857 को तात्या टोपे के नेतृत्व में कानपुर पर हमला बोल दिया । नाना साहिब के सिपाहियों ने यहां कई फिरंगियों को युद्ध में मार कर उनके शवों को सेंट मेमोरियल वेल नामक कुएं में फेंक दिया । और कानपुर पर अपना अधिकार करके केशवा बन गए । किंतु बाद में अंग्रेजों ने इन्हें अपदस्थ कर दिया । नाना साहब का मुख्य सलाहकार अजीम उल्ला तथा सेनापती तात्या टोपे था । तात्या टोपे तथा मनु इनके बचपन के मित्र भी थे । उन्होंने एक योजना बनाकर 31 मई सन 1857 को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की तिथि नियत की थी । 1858 में नेपाल के जंगलों में मलेरिया बुखार के कारण नाना साहिब की मृत्यु हो गई ।
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